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मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587

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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?


अत: ऐसी व्याख्या जो स्वतन्त्रता की इस प्रबल और सर्वथा अनिवार्य भावना की उपेक्षा करती है और ऊपर कहे अनुसार सत्य के एक अंश का खण्डन करके उसके शेष अंश को समझाती है, वह व्याख्या अशुद्ध और भ्रमात्मक है।

तब तो यही दूसरा पक्ष सम्भव है कि अपनी प्रकृति के अनुकूल यही बात मान ली जाय कि हममें ऐसी कोई वस्तु है जो स्वतन्त्र और नित्य है।

परन्तु देह वह वस्तु नहीं और न मन ही वह वस्तु है। देह का नाश तो प्रतिक्षण होता रहता है और मन तो सदा बदलता रहता है। देह तो एक संघात है और उसी तरह मन भी। इसी कारण परिवर्तनशीलता के परे वे नहीं पहुँच सकते। परन्तु स्थूल जड़ भूत के इस क्षणिक आवरण के परे, मन के सूक्ष्म आवरण के भी परे, मनुष्य का सच्चा-स्वरूप - नित्य मुक्त सनातन आत्मा अवस्थित है।

उसी आत्मा की स्वतन्त्रता की झलक मन और जड़ शरीर के स्तरों के भीतर से आभासित होती है और नाम-रूप द्वारा रंजित होते हुए भी सदा अपने अबाधित अस्तित्व को प्रमाणित करती है।

उसी का अमरत्व, उसी का आनन्दस्वरूप, उसी की शान्ति और उसी का दिव्यत्व प्रकाशित हो रहा है और अज्ञान के मोटे मोटे स्तरों के रहते हुए भी वह अपने अस्तित्व का अनुभव कराती रहती है, वही यथार्थ पुरुष है, निर्भय है, अमर है और स्वतन्त्र है।

अब स्वतन्त्रता तो तभी सम्भव है जब कि कोई बाहरी शक्ति अपना प्रभाव न डाल सके, कोई परिवर्तन न कर सके, स्वतन्त्रता, उसी के लिए सम्भव है जो सभी बन्धनों से परे हो, सभी नियमों से परे हो और कार्य- कारण की श्रृंखला से भी परे हो। कहने का तात्पर्य यही है कि एक अव्यय (पुरुष) ही स्वतन्त्र हो सकता है और उसी कारण अमर भी हो सकता यह पुरुष, यह आत्मा, मनुष्य का यह यथार्थ स्वरूप, मुक्त, अव्यय, अविनाशी, सभी बन्धनों से परे है, और इसीलिए वह न तो जन्म लेता, न मरता है।

न जायते म्रियते वा कदा
चिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।


''मनुष्य की यह आत्मा नित्य, सनातन और जन्म-मरणरहित है।'' - गीता, २/२०

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