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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


उस एक की सहानुभूति ने मुझे आशीष दिया, मुझमें आशा जगाई। वह स्त्री थी। हमारे गुरुदेव - ये महासंन्यासी – बाल्यावस्था में ही विवाहित हो गये थे। युवा होने पर जब उनकी धर्मप्रवणता अपनी चरम सीमा पर थी, तब वे आये एक दिन अपनी पत्नी को देखने। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने के उपरान्त युवावस्था तक उन्हें परस्पर मेल-मिलाप करने का अवसर क्वचित् ही मिला था। पर जब वे बड़े हो चुके, तो आये एक दिन अपनी पत्नी के पास, और बोले, ‘देखो, मैं तुम्हारा पति हूँ। इस देह पर तुम्हारा अधिकार है। यद्यपि मैंने तुमसे विवाह कर लिया है, पर मैं सांसारिक जीवन नहीं बिता सकता। मैं अब सब कुछ तुम्हारे फैसले पर छोड़ता हूँ।’ उन्होंने रोते हुए कहा, ‘प्रभु तुम्हारा मंगल करें। क्या तुम्हारी यह धारणा है कि मैं तुम्हे अधःपतित करने वाली स्त्री हूँ? बन सकेगा तो मैं तुम्हारी सहायक ही होऊंगी। जाओ अपने कार्य में अग्रसर होओ।’

ऐसी स्त्री थीं वे। पति अग्रसर होते गये और अन्त में संन्यासी बन गये, अपनी राह पर बढ़ते गये और यहाँ पत्नी अपने ही स्थान से उन्हें सहायता पहुँचाती रहीं – जहाँ तक बन सका, वहाँ तक। और बाद में जब वे पुरुष आध्यात्मिक दिग्गज बन गये, तब वे आयीं। सचमुच में वे ही उनकी प्रथम शिष्या हुईं और उन्होंने अपना शेष जीवन उनकी देह की सुरक्षा और सेवा करने में बिताया। उन्हें तो कभी यह पता भी नहीं चला कि वे जी रहे हैं, मर रहे हैं अथवा कुछ और बोलते बोलते कई बार तो ऐसे भावाविष्ट हो जाते कि जलते अंगारों पर बैठने पर भी उन्हें कोई खयाल न होता। हाँ, जलते अंगारों पर ! अपने शरीर की ऐसी सुध उन्हें भूल जाती।

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