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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


पर हमें यह भी विदित है कि हिन्दू जाति ने भी कभी धन को श्रेय नहीं माना धन उन्हे खूब प्राप्त हुआ – दूसरे राष्ट्रों से कहीं अधिक धन उन्हें मिला, पर हिन्दू जाति ने धन को कभी श्रेय नहीं माना। युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसका श्रेय नहीं बनी, कभी उसने अपनी शक्ति का उपयोग अपने देश के बाहर किसी पर विजय प्राप्त करने के लिए नहीं किया। वह अपनी सीमाओं से सन्तुष्ट रहा।, इसलिए उसने कभी भी किसी से युद्ध नहीं किया, उसने कभी भी साम्राज्यवादी गौरव को महत्व नहीं दिया। धन और शक्ति इस जाति के आदर्श कभी न बन सके।

तो फिर ? उसका मार्ग उचित था या अनुचित – यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है, वरन् बात यह है कि यही एक ऐसा राष्ट्र है, यही मानववंशों में एक ऐसी जाति है, जिसने श्रद्धापूर्वक सदैव यही विश्वास किया कि यह जीवन वास्तविक नहीं, सत्य तो ईश्वर है, और इसलिए सुख और दुःख में उसी को पकड़े रहो। अपने अधःपतन में भी उसने धर्म को प्रथम स्थान दिया है। हिन्दू का खाना धार्मिक, उसका पीना धार्मिक, उसकी नींद धार्मिक, उसकी चालढाल धार्मिक, उसके विवाहादि धार्मिक, यहां तक कि उसकी चोरी करने की प्रेरणा भी धार्मिक होती है।

क्या तुमने अन्यत्र भी ऐसा देश देखा है? यदि वहाँ एक डाकुओं के गिरोह की जरूरत होगी, तो उसका नेता एक धार्मिक तत्व गढ़कर उसका प्रचार करेगा। उसकी कुछ खोखली सी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि रचेगा और फिर उद्घोष करेगा कि परमात्मा तक पहुँचने का यही सबसे सुस्पष्ट और शीघ्रगामी मार्ग है। तभी लोग उसके अनुचर बनेंगे – अन्यथा नहीं। इसका एक ही कारण है और वह यह है कि इस जाति की सजीवता, इस देश का ध्येय धर्म है, और चूंकि धर्म पर अभी आघात नहीं हुआ, अतः यह जाति जीवित है।

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