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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘क्यों?’ मैंने पूछा।

‘तुम भारत सरकार के नौकर जो हो।’

‘चचा जान! ऐसा न करो। खबर भेज दो कि मैं भी मर गया हूँ।’

‘‘पर दूसरे लोगों ने तुम्हें सही-सलामत इस मकान की छत पर उतरते देखा है।’

‘मगर मैंने तो पाकिस्तान की मदद की है। दुश्मन के एक जहाज को तबाह कर दिया है।’

‘मगर तुम भाग कर फिर भारत में चले जाओगे।’

‘अगर वहाँ गया और उनको मेरी हरकत का पता चला तो गोली से उड़ा दिया जाऊँगा। देखो, चचा! मैं तब तक इसी मकान में कैद रहूँगा जब तक जंग रहेगी। पीछे से पाकिस्तान में ही बस जाऊँगा। उस काफिरिस्तान से निकलने के लिये ही मैं बेताब था। अगर एक हिन्दुस्तानी फौजी समझ कर कैद किया गया तो ये मुझे भूखा मार देंगे। चचा, रहम करो। देखो, जैसा मैं कहता हूँ वैसा ही करो। खुदा तुम्हारे कामों में बरकत डालेगा।’

‘‘जीजाजी! यह नाटक मैं पहले भी कर चुका हूँ। इसी करण इस बार भी मैं सफल हो गया। चौधरी को बात समझ में आ गयी। उसने कहा, ‘बताओ?’

‘मैं तुम्हें अपनी वर्दी उतार कर दे देता हूँ। तुम किसी लाश को पहना कर मेरी लाश का ऐलान कर दो। मैं बच जाऊँगा और ताहयात तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को दुआ देता रहूँगा।’

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