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पीढ़ी का दर्द

सुबोध श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9597

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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।


कठपुतलियां


हाँ, हम सब
सिर्फ कठपुतलियाँ हैं,
हाड़-मांस कीं
चलती-फिरती
बोलती हुई
जिनकी डोर है
तहज़ीबदार
समाज के हाथों में।

यूँ ज़िन्दा रहना
और
सुनहरे सपने देखना
ज़िन्दगी के कदमों की
आहट देते हैं
लेकिन,
ज़िन्दा आँखों के सामने
सपनों का
छटपटाकर दम तोड़ देना
और
होठों का ख़ामोश रहना,
यह सब
हाड़-माँस के पुतले की
प्राणवायु नहीं हो सकते कभी।

वैसे भी-
बेजान चीजों
और
संवेदनाओं में
कोई साम्य नहीं बैठता।

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