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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

इस सुन्दर और सुहावने समय में सबने रेखा को कुछ सुनाने का आग्रह किया। सबके बार-बार कहने पर वह इन्कार न कर सकी और नदी के मौन जल में बहती हुई नाव के बहाव की ताल पर एक मधुर गीत गाने लगी। मन्द पवन में उसका आंचल लहराकर मानो उसके स्वर पर झूम रहा था।

गीत समाप्त होने पर सबने तालियां बजाईं। नाविक ने भी सहयोग दिया, कुसुम को यह बात बुरी लगी और वह दमक कर बोली- ‘यह क्या असभ्यता है?'

'भूल के लिए क्षमा चाहता हूं! ’ गाना इतना मधुर था कि प्रशंसा किए बिना न रह सका।

'जाओ, क्षमा किया, फिर ऐसा न करना।'

थोड़े समय के लिए फिर निस्तब्धता छा गई और वे एक दूसरे का मुंह देखती रहीं। कमला ने मौन तोड़ते हुए सामने वृक्षों के झुण्ड की ओर संकेत करते हुए पूछा--’यह कौन-सा स्थान है?'

'आम का बाग.....’ नाविक ने आंखें नीची किए उत्तर दे दिया।

आम तोडने का प्रोग्राम बना, नाव किनारे लगा दी गई। और सब वारी-बारी से वहां उतर आईं। रेखा मखमली दूब पर बैठते हुए बोली-’कमला, तुम सब जाओ, मैं यहीं बैठती हूं।'

'यह कैसे हो सकता है?'

'सच, बड़ी थक गई हूं... मेरी अच्छी सखी... मेरा भाग यहीं लेती आना।'

सबने यत्न किए, खींचा, मिन्नतें कीं, किन्तु रेखा टस मे मस न हुई। आज वह दिन भर की थकान से चूर हो रही थी और घर लौटने पर उसे फिर काम करना था। यही तो आराम के कुछ क्षण थे।

सब आम तोडने चली गईं और वह कुहनियों के सहारे घास पर लेट गई। लेटे-लेटे उसने घास का एक तिनका तोड़ा और बच्चे के समान उसे दांतों से कुतरने लगी, अचानक इसकी दृष्टि सामने खड़े नाविक पर पड़ी। वह झेंपकर रह गई और क्रोध में उसकी ओर देखते हुए बोली - ‘मेरी ओर यूं घूर-घूर कर क्या देख रहा है? ’

‘जी... मैं तो नहीं देख रहा हूं।’

‘और कौन देख रहा है? ’ वह मुंह बनाते हुए उठ बैठी।

‘मेरी ये दो आंखें।’

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