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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तुम ठहरो, मैं अभी आई।'

'कहां चली?' कमला ने प्रश्न किया।

'उस माझी को भाडा देना है।'

'उस चोर को।'

'चाहे कुछ भी हो, मैं किसी की मजदूरी मारना उचित नहीं समझती।'

यह कहती हुई वह तेजी से मोहन की ओर लौट पडी। सब स्थिर खडी उसे देखती रहीं। रेखा उसके पास जाकर बोली- ‘जो कुछ भूल में हुआ उसके लिए क्षमा करना। मैं विवश थी।''

'रेखा, यदि बुरा न मानो तो इस हार को मुझ गरीब का तुच्छ उपहार ही समझ लो।'

'तो मैं इसे जीवनभर अपने से अलग न करूंगी।' आंखों में सरसता लाकर सहानुभूतिपूर्ण स्वर में रेखा ने कहा।

‘सच रेरवा!' उत्सुकता भरी दृष्टि से पुकारते हुए मोहन ने पूछा।

'यदि मेरी एक बात मानो तो'

'क्या?'

रेखा ने सौ-सौ के दो नोट उसकी ओर बढाते हुए कहा- ‘तुम्हारी मजदूरी।'

'रेखा.. ’

परन्तु नोट फेंककर वह जा चुकी थी। मोहन ने धरती पर गिरे दो नोट उठाकर अपनी मुठ्ठी में, बन्द कर लिए और अपनी विजय पर मन ही मन मुस्कराने लगा। आज रेखा के मन की गहराइयों तक पहुचने में वह सफल हो गया था। वह देर तक खडा उन लडकियां को देखता रहा जो उसकी नाव को छोड़कर पैदल ही शहर की ओर लौट रही थीं।

उसने नाव को धकेलकर फिर नदी में उतार लिया और चप्पू चलाकर वापस लौटने लगा।

दूर नदी के किनारे दूसरे तट पर किसी मकान में रेडियो पर कोई कलाकार गा रहा था- 'मैं प्रेम में रटता आया हूं - मैं प्रेम में...... ’

एक-एक कर।' नाव में रखे आमों को मोहन नदी में फेंकने लगा, आमों के गिरते ही पानी में गोलाकार लहरें बनने-बिगडने लगीं। ठीक उसी तरह, उसके मन में भी आज हर्ष और उल्लास की तरगें उठने-गिरने लगीं।

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