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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

बकवास बन्द करो।' मोहन क्रोध में बावला हो उठ खड़ा हुआ और भारी-भारी पग उठाता हुआ बाहर चला गया।

होटल से बाहर आकर बिना कुछ निश्चय किए ही एक ओर को बढ़ता गया। सुनसान सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था। रैन हर घडी अपना आंचल बढ़ाती चली आ रही थी।

वह चिन्तित था। उसके व्यवहार उसी के मार्ग में खड़े होकर उस पर विषाक्त ठहाके लगा रहे थे।

एक ओर तबस्सुम, दूसरी ओर रेखा.. एक ओर है एक उपेक्षित नर्तकी जो उसके जीवन में केवल तूफान भरती है और दूसरी ओर है उच्च सभ्यता की प्रतीक शिक्षित सुन्दरी, जो उसे जीने की प्रेरणा देती है वह मस्तिष्क में इन्हीं दोनों का चित्र खींचता बढ़ता गया।

गिरजा की घड़ी ने जैसे ही रात के नौ बजाए, रेखा ने विस्तर पर बैठे-बैठे अंगड़ाई ली। हाथ में पकड़ी पुस्तक को उसने असावधानी से एक ओर रख दिया और उठकर सामने दर्पण के सम्मुख जा खडी हुई। कंघी उठाकर ज्योंही उसने माथे पर आए बालों को हटाने के लिए हाथ उठाया ही था कि क्षीण स्वर में अपना नाम सुनकर वह सहसा कांप गई, उसने मुडकर देखा, वहां कोई न था। खिड़की के पास आकर उसने नीचे झांका।

'कौन! मोहन! ’

'हां रेखा... मैं हूं।'

'इतनी रात को यहां, आना क्या ठीक है, मोहन?'

'क्या करूं... दिन के उजाले को तो हमारा मिलन भाता नहीं।' कहता हुआ मोहन खिडकी फांदकर भीतर आ गया। रेखा उसकी यह निर्भय हरकत देखकर सहम गई। भीतर आते ही मोहन ने झट खिडकी बन्द कर दी और रेखा की भयाक्रान्त मुखाकृति को देख बोला--’शायद तुम मुझसे घबरा रही हो!' ‘नहीं तो... पर किसी ने देख लिया तो...'

'घबराओ नहीं, इतना ध्यान है मुझे...' यह कहते ही उसने दीवार से लगा स्विच दबाकर कमरे में अंधेरा कर दिया। बाहर से छनकर आते हुए प्रकाश में खडी होकर चिन्तातुर स्वर में रेखा बोली-’ऐसी भी क्या आवश्यकता आ पड़ी जो इस समय ... इस तरह..'

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