लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे

राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

299 पाठक हैं

मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

‘बन जाएगा।'

'कब तक।'

'दो-चार दिनों में।'

'परन्तु यह तो आज शाम को ही लौटाना है।'

'ले जाओ, मेरे पास इसका सांचा है।'

'ध्यान रहे अन्तर न हो।' मोहन उसका हाथ अपने हाथ में लेकर दबाते हुए बोला और उठकर बाहर चला आया।

दो दिन तक मोहन रेखा से मिलने नहीं गया। तीसरी शाम जब वह कपड़े बदलकर बाहर जाने को तैयार ही था कि तबस्सुम भीतर आई। वह बहुत थकी हुई थी और ऐसा प्रतीत होता था जैसे वड़ी दूर से चलकर आई हो। आते ही उसने असावधानी से अपना पर्स सामने मेज पर फेंक दिया और आराम कुर्सी पर लेट गई।

हैलो तबस्सुम.. कहां गई थीं? सहसा कमरे में प्रवेश कर मोहन ने पूछा।

'बाजार तक, परन्तु तुम्हारी तैयारी कहां जाने की है?'

‘अपने नित्य के प्रोग्राम पर।'

'रेखा से मिलने.. पर मोहन कभी यह भी सोचा है कि यह तमाशा कब तक चलेगा?'

'जब तक जीवन है।'

'तुम्हें विश्वास है कि उसके माता-पिता यह नाता स्वीकार कर लेंगे।'

'एक दिन उन्हें झुकना ही होगा।'

'अपने प्रेम और बातों के जाल में फंसाकर तुम उसे भगा- कर तो ले जा सकते हो, परन्तु यदि तुम चाहो कि आदर और मान के साथ उस परिवार में घुल-मिल जाओ तो यह असम्भव है।'

'रेखा मुझ पर प्राण देती है फिर कौन ऐसा कठोर-हृदय मां-बाप होगा जो अपनी सन्तान की खुशी नहीं चाहेगा।’

'पर कोई भी बाप, अपनी सन्तान किसी को सौंप देने के पूर्व उसकी कुल-मर्यादा की जांच करता है।'

'वह मूर्ख है जो......’ क्रोधावेश मे वह बोला-’दो प्रेमियों का मूल्यांकन करने में भूल करे।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book