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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

वह भय-विह्वल चीखने ही वाली थी कि उस व्यक्ति ने उसके मुंह पर अपना हाथ रख दिया और कहा- 'रेखा..... मैं हूं... मोहन...'

'हे भगवान! रक्षा हुई! मैं तो बुरी तरह डर गई थी।'

‘क्यों नहीं.. अब तो मुझसे डरोगी ही।'

'आज यह कैसी बातें कर रहे हो?' खिड़की का पट बन्द करते हुए उसने पूछा।

'जो कहा है, गलत नहीं है। नया राही मिलने पर, पहले मिला राही ध्यान से उतर जाता है, रेखा।''

'मेरी विवशता का उपहास न करो मोहन! उस समय उठना चाहकर भी मैं उठ न सकी थी। सबके सामने से उठकर आना भी तो अशिष्टता होती।'

'जो भी कहोगी मानना होगा... जीवन जो तुम्हें सौंप चुका हूं।’

'खैर! छोडो व्यर्थ की बात! काम की बात करो। मैं तुमसे आज स्वयं मिलने वाली थी।’

'क्यों?' उसने घबराहट में पूछा।

'एक वात जानना चाहती हूं, झूठ तो नहीं कहोगे? ’

'नहीं'

'क्या वह हार वास्तव में तुम्हारा था? ’

'हां... परन्तु क्यों, क्या बात है?'

'पहले मेरा उत्तर दो।'

'विश्वास रखो, सव सच बतला दूंगा।'

'परसों सन्ध्या को इन्सपेक्टर तिवारी आए थे।'

'तिवारी!' आश्चर्य से उसने रेखा की ओर देखा।

'हां, वे मेरे वाबा के मित्र हैं... काफी समय तक वे उनसे कुछ बातचीत करते रहे। तत्पश्चात् वह हार मुझसे लेकर बाबा उन्हें दिखाया। हाथ पर खिलौने की तरह उछालते हुए उन्होंने ने विचित्र तरीके से सिर हिलाया। उस सिर हिलाने में मुझे कुछ रहस्य जान पडा। दूसरे ही क्षण उन्होंने हार को जेव में डाल लिया।''

'परन्तु उन्होंने ऐसी गुस्ताखी करने की हिम्मत कैसे की?' ‘पुलिसवाले जो ठहरे?'

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