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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'आप व्यर्थ सन्देह कर रहे हैं... ऐसी कोई बात नहीं है।'

‘एक बार फिर सोच लो, यह तुम्हारे जीवन-मरण का प्रश्न है।'

'सोचकर ही बताया है। जब मैं कुछ जानती ही नहीं, तो बताऊं क्या?'

'हवलदार?' क्रोध में तिवारी ने बाहर खड़े सिपाही को आवाज दी। जैसे ही वह भीतर आया, तबस्सुम कांप गई। मोहन की भी सांस रुक गई। उसकी आंखें आगे की कार्यवाही देखने के लिए आतुर हो उठीं।

तिवारी का संकेत पाते ही हवलदार बाहर आ गया - और अपने साथ एक-दूसरे आदमी को लकर भीतर आया। मोहन और तबस्सुम दोनों आने वाले को देखते ही आश्चर्यचकित रह गए। यह जौहरी लाला छक्कनलाल था जिससे वह हार खरीदा था।

तिवारी ने लाला की बांह पकड, उसे तबस्सुम के सामने खड़ा करते हुए पूछा- 'इन्हें तो पहचान लिया होगा? ’

'नहीं तो..।' आश्चर्य प्रकट करते हुए तबस्सुम ने उत्तर दिया मैंने तो आज इन्हें पहली बार.... ’

'देखा है...।' तिवारी बात को पूरा करते हुए बोला-’बड़ी भोली बनती हो.. क्यों लाला जी? आपका क्या कहना है?'

'जहां तक मुझको याद है, यही स्त्री उस युवक के साथ रानी के वेष में गहने खरीदने आई थी।'

'सम्भव है आपको धोखा हुआ हो।' तवस्सुम लाला की ओर अभिमुख हो बोली।

'पुलिसवालों की भांति हम लोगों को भी चौकन्ना रहना पड़ता है मेमसाहब!' लालाजी ने मूंछों पर हाथ फेरते हुए कहा।

'मेरे विचार से इस कमरे की तलाशी शायद हमारा रास्ता आसान कर देगी।’ इन्स्पेक्टर तिवारी ने दूसरा तीर छोड़ा।

'इंस्सपेक्टर साहब! यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न है।'

'परन्तु, कानून के हाथो मैं विवश हूं.... हवलदार! चलो, जल्दी करो।'

'ठहरिए.. यदि मैं.... ’

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