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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'तुम समझ रही होगी कि यह सव सुनकर मैं क्रोध में आ गया हूं और न जाने ऐसी दशा में क्या कर बैठूं, परन्तु मैं इतना मूर्ख नहीं हूं कि असलियत न समझूं। ऐसी स्थिति में कोई भी क्यों न हो, वही करता जो तुमने किया है।'

मोहन के इस आकस्मिक भाव-परिवर्तन पर वह अवाक् रह गई। इतने दिन साथ रहकर भी उसने उसे न समझने की भूल का अनुभव किया। उसे नम्र देख उसका साहस बढ़ा। वह बोली-

'ऐसा कहने के लिए मैं विवश हो गई थी।'

'तुमने सच ही कहा था. एक न एक दिन मुझे जाना ही है।

'यह तो केवल मैंने तलाशी से बचने के लिए नाटक रचा था.. यदि तुम चाहो तो हम यहां से दूर निकल जा सकते हैं।' ‘नहीं तबस्सुम। पैर आगे बढाकर पीछे हटाना मैंने नहीं सीखा है। मृत्यु का भय भी मुझे यहां से दूर नहीं ले जा सकता, मेरे पैर वंध गए हैं, छुड़ा लेना मेरी शक्ति के परे की बात हो गई है।'

ठीक उसी समय दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। मोहन तुरन्त पर्दे के पीछे जा छिपा। होटल का मैनेजर भीतर आया और रुमाल से माथे का पसीना पोंछते हुए बोला- 'अब क्या होगा तबस्सुम?'

'इसी उलझन में तो मैं भी पड़ी हूं।'

'यदि पुलिस वालों के आने की सूचना पहले मिल जाती तो मैं तुम्हें कहीं दूर भिजवा देता - अब तो जमानत भी मुझे ही करनी पड़ी है।'

'तो क्या इनसे पिण्ड छुड़ाने का कोई उपाय नहीं?

'नहीं, पर मेरी समझ में यह वात नहीं आती कि तुम उस आवारा के पीछे क्यों चिपटी हो? क्यों अपना बहुमूल्य जीवन पानी के मोल बेच रही हो? पुलिस को सूचना दे दो... दोनों को निपट लेने दो। तुम किनारा खींच लो, मेरी यही सलाह है।'

’पर मि० वर्मा, ऐसा मुझसे न हो सकेगा।'

'अब तो ऐसा होकर रहेगा। परसों रात को नौ वजे का वचन जो दे चुकी हो।'

तवस्सुम चुप रह गई। अधिक बात वढ़ाकर वह मोहन की उपस्थिति को प्रकट होने देना नहीं चाहती थी। सम्भव था, बातों ही बातों में उसके विषय में कोई अनुचित बात मुंह से निकल जाए। मि० वर्मा समझ गए कि यह वह रंग है जिस पर और कोई रंग चढ़ाया नहीं जा सकता।

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