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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

रमेश जोर से हंस पडा। हंसते-हंसते ही बोला-’मैं उसके स्थान पर होता तो प्रश्न होता - देवीजी का परिचय। उसकी भांति मूर्खों की तरह न पूछता, समझी....। पर यदि तुम उसका सहयोग चाहती हो तो तुम्हारा मन रखने के लिए मैं अषने सिद्धान्त की हत्या कर सकता हूं...'

अभी वह और कुछ कहने वाला था कि मोहन घोड़ा-गाड़ी लेकर आ उपस्थित हुआ।

अभी रमेश कुछ निश्चय भी न कर पाया था कि न मालम किस प्रेरणा से, अपनी भूल न होते हुए भी रमेश ने मोहन से क्षमा मांग ली। मोहन अभी कुछ कहने को ही थो कि रेखा ने यह बात स्वयं अपने ऊपर ले ली-

'भूल तो मेरी थी... आप क्यों परेशान हैं?'

'वह कैसे?'

'कुर्सी पर पर्स न रखती और न बात इतनी दूर तक बढ़ती।'

इस पर तीनों हंस पड़े।

उसकी कोठी के समीप पहुचकर कोचवान ने गाड़ी रोक दी। दोनों नीचे उतर आए। रमेश ने धन्यवाद देते हुए मोहन से भीतर चलकर चाय पीने का आग्रह किया। मोहने ने विव- शता प्रकट करते हुए क्षमा मांग ली। पश्चात् परस्पर अभिवादन का उत्तर-प्रत्युतर दे रेखा और रमेश कोठी के भीतर चले आए।

मोहन के होंठों पर फिर वही विषाक्त हंसी खेल गई।

कोचवान ने गाड़ी बढ़ाई तो वर्षा के, छींटों की आवाज में से तबस्सुम के घुंघरुओं की आवाज सुनाई देने लगी, जो उसे किसी भयानक तूफान् की सूचना दे रहे थे।

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