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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'जी...' घबराहट पर काबू पाते हुए उसने उत्तर दिया। ‘क्यों? क्या बात है, जो इतनी घवराई-सी हो?'

'नहीं तो, घबराई-सी कहां हूं...'

‘शायद मेरे चले जाने से तो नहीं...?'

'कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। आखिर इतने दिन के सह- वास के बाद बिछोह अपना कुछ असर दिखाएगा ही।'

'रेखा, यह दो-चार दिन का मिलन और बिछोह तो उस चौराहे के समान है, जहां चारों ओर से लोग आकर मिलते हैं -बिछुड़ते हैं और याद पीछे छोड़ जाते हैं। हम-तुम भी तो इसी तरह मिले हैं। लेकिन इतना दृढ़ता के साथ कह सकता हूं कि तुम मुझे याद आती रहोगी।’

‘जब मेरी याद आए तो बोरिया-बिस्तर बांधकर चले आइएगा। आपके लिए यह द्वार सदा खुला रहेगा...।' मुस्कराते हुए रेखा ने कहा।

मां टिफिन का डिब्बा लिए कमरे से बाहर आई। रेखा ने देखा, तिवारी जा चुका है और राणा साहव दूर खड़े दोनों को बातें करते देख मुस्करा रहे थे। रेखा थोड़ी सकुचा गई?

मां ने पूछा-’नीला कहां है?'

'सामने पार्क में खेलने चली गई है।'

मां ने घर की चाबियां रेखा की हथेली पर रख दीं और स्वयं मोटर की ओर बढ़ गई।

रेखा ने रमेश को नमस्कार किया परन्तु उसका मस्तिष्क इस समय कहीं और था। मोटर फाटक से दूर जा चुकी थी, लेकिन वह वहां अकेली कितनी ही देर तक खड़ी रही।

उसका मस्तिष्क उलझनों का अम्बार बन गया था। हार का चोर, आत्मह्त्या.. कहीं मोहन... नहीं-नहीं। ऐसा नहीं हो सकता!.. वह इतना कायर नहीं...।

अचानक उसके कानों में सीटी की सुरीली आवाज सुनाई दी। उसके मृतप्राय शरीर में एकाएक मानों रक्त दौड़ने लगा। उसने इधर-उधर देखा कोई भी न था। घर में आज उसी का राज्य था। कोई डर नहीं था। वह धीरे-धीरे पांव उठाती चोरों की भांति फाटक से बाहर चली आई और दृष्टि बचाकर पिछबाड़े की दीवार तक जा पहुंची। सामने मोहन को खड़ा देख वह मुस्करा उठी।

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