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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'रेखा, तुम मुझे गलत समझ रही हो...'

'तो तुम मेरा नाम भी जान चुके हो...।’

'बिगडो नहीं.. .तुम्हारी ही सहेली ने बताया था।’

'मेरी सहेली.. कौन? '

'यह पुस्तक.. शायद आप ही का नाम है।’

रेखा ने हाथ की पुस्तकों को देखा। ऊपर वाली पुस्तक पर उसी का नाम लिखा था। उसने क्रोध और घबराहट में कांपते हुए उसे उलट दिया।

'कुछ आवश्यकता से अधिक चालाक दिखाई देते हो।'

'चोर चालाक ही हुआ करते हैं।'

'तो इसमें झूठ ही क्या है।’

'तुम्हें विश्वास है कि मैं चोर हूं।'

'आधी रात दूसरों के घरों में मुंह छिपाना वह... हार.... पुलिस..’क्या यह सब एक धोखा था?'

'निर्दोष राही भी कभी-कभी चोर समझ लिए जाते हैं।' ‘तो क्या वह हार...'

'मेरा अपना था. मरते समय मेरी मां ने मुझे दिया था कि बहू को दे देना।'

'तुमने उसे दिया क्यों नहीं? ' रेखा ने बात में रुचि लेते हुए पूछा।

'ब्याह ही कहां हुआ है अभी, जो देता।'

'तो पुलिस किसलिए पीछा कर रही थी?'

अजनवी ने जब रेखा के क्रोध को उत्सुकता में परिवर्तित होते देखा तो अपनी राम-कथा सुनाते हुए उसने बतलाया कि वह एक परदेशी है जो आजीविका की खोज में मारा-मरा फिर रहा है। जो कुछ थोडा-बहुत पास था उसे खा-पी डाला, अब आवश्यकता पडने पर यह मां की अन्तिम निशानी बेचने चला था कि लेने वाले ने उसके बहुत कम दाम बताए? बातों-बातों में उससे काफी झडप हो गई। वह चोर-चोर चिल्लाने लगा। डर से मैं भाग निकला और पुलिस मेरा पीछा करने लगी। यह तो भगवान की कृपा हुईं कि मैं आश्रय लेने एक देवी-स्वरूप नारी के यहां चला आया।

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