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सरल राजयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :73
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9599

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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण


हमें 'सूर्य' और 'चन्द्र' की गतियों को एक नयी दिशा में परिचालित करना होगा और इसके लिए सुषुम्ना का मुख खोलकर उन्हें एक नया रास्ता दिखा देना होगा। जब हम इस सुषुम्ना से होकर शक्ति-प्रवाह को मस्तिष्क तक ले जाने में सफल हो जाते हैं, तब उतने समय के लिए हम शरीर से बिलकुल अलग हो जाते हैं।

मेरुदण्ड के तले त्रिकास्थि अथवा त्रिकोणाकृति हड्डी (sacrum) के निकट स्थित मूलाधार चक्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह स्थल प्रजनन-शक्ति के बीज - वीर्य - का निवासस्थान है। योगी इसको एक त्रिकोण के भीतर कुण्डली लगाकर बैठे छोटेसे सर्प के प्रतीक के द्वारा व्यक्त करते हैं। इस निद्रित सर्प को कुण्डलिनी कहते हैं। इस कुण्डलिनी को जागृत करना ही राजयोग का प्रमुख उद्देश्य है।

महती काम-शक्ति को पशुसुलभ क्रिया से परावृत्त करके ऊर्ध्व दिशा में मनुष्य-शरीर के महान् विद्युत्-आधार-स्वरूप मस्तिष्क में परिचालित करते हुए वहाँ संचित करने पर वह ओज अथवा आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हो जाती है। प्रत्येक सत्-विचार, प्रत्येक प्रार्थना उस पशुसुलभ शक्ति के कुछ अंश को ओज में परिणत करने में सहायता करती है। और इस प्रकार हमें आध्यात्मिक बल प्रदान करती है। यह ओज ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इसका संचय सम्भव है। जिस व्यक्ति की समस्त पशुसुलभ काम-शक्ति ओज में परिणत हो गयी है, वह देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत् को पुनरुज्जीवित करते हैं।

योगी मन ही मन कल्पना करता है कि यह कुण्डलिनी सुषुम्ना-पथ से धीरे-धीरे ऊपर उठ रही है तथा एक के बाद एक विविध स्तरों को भेदती हुई सर्वोच्च स्तर अर्थात् मस्तिष्क में स्थित सहस्रार में पहुँच रही है। काम-शक्ति मनुष्य की सर्वोच्च शक्ति है; और जब तक मनुष्य (स्त्री या पुरुष) इस काम-शक्ति को ओज में परिणत नहीं कर लेता, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता।

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