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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


88. आजकल हमारे देश में कितने लोग सचमुच मे शास्त्र समझते हैं? उन्होंने सिर्फ कुछ शब्द, जैसे ब्रह्म, माया, प्रकृति आदि रट लिए हैं और उनमें अपना सिर खपाते हैं। शास्त्रों के सच्चे अर्थ और उद्देश्य को एक ओर रखकर, शब्दों पर लडते रहते हैं। यदि शास्त्र सब व्यक्तियों को, सब परिस्थितियों में, सब समय उपयोगी न हों, तो वे किस काम के हैं? अगर शास्त्र सिर्फ संन्यासियो के काम के हों और गृहस्थों के नहीं, तो फिर ऐसे एकांगी शास्त्र का गृहस्थों को क्या उपयोग है? यदि शास्त्र सिर्फ सर्वसंगपरित्यागी, विरक्त और वानप्रस्थों के लिए ही हों और यदि वे दैनन्दिन जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आशा का दीपक नहीं जला सकते, यदि वे उनके दैनिक श्रम, रोग, दुःख-दैन्य, परिताप में निराशा, दलितों की आत्मग्लानि, युद्ध के भय, लोभ, क्रोध, इन्द्रियसुख, विजयानन्द, पराजय के अन्धकार और अन्ततः मृत्यु की भयावनी रात में काम में नहीं आते - तो दुर्बल मानवता को ऐसे शास्त्रों की जरूरत नहीं, और ऐसे शास्त्र, शास्त्र नही हैं।

89. भोग के द्वारा योग समय पर आयेगा। परन्तु मेरे देशवासियों का दुर्भाग्य है कि योग की प्राप्ति तो दूर रही, उन्हें थोड़ासा भोग भी नसीब नहीं। सब प्रकार के अपमान सहन करके, वे बड़ी मुश्किल से शरीर की न्यूनतम आवश्यकताओं को जुटा पाते हैं और वे भी सब को नहीं मिल पाती! यह विचित्र है कि ऐसी बुरी स्थिति से भी हमारी नींद नहीं टूटती और हम अपने तात्कालिक कर्तव्य के प्रति उन्मुख नहीं होते।

90. अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिए आन्दोलन करो, लेकिन याद रखो कि जब तक देश में आत्मसम्मान की भावना उत्कटता से नहीं जगाते और अपने आपको सही तौर पर नहीं उठाते तब तक हक और अधिकार प्राप्त करने की आशा केवल अलनस्कर (शेखचिल्ली) के दिवास्वप्न की तरह रहेगी।

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