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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


34. यदि मैं एक मिट्टी के ढेले को पूर्णतया जान लूँ, तो सारी मिट्टी को जान लूँगा। वह है सिद्धान्तों का ज्ञान, लेकिन उनका समायोजन अलग-अलग होता है। जब तुम स्वयं को जान लोगे, तो सब कुछ जान लोगे।

35. व्यक्तिगत रूप से मैं वेदों मे से उतना ही स्वीकार करता हुए, जो बुद्धिसम्मत है। वेदों के कतिपय अंश स्पष्ट ही परस्परविरोधी हैं। वे, पाश्चात्य अर्थ में, दैवी प्रेरणा से प्रेरित नहीं माने जाते हैं। परन्तु वे ईश्वर के ज्ञान या सर्वज्ञता का सम्पूर्ण रूप है। यह ज्ञान एक कल्प के आरम्भ में व्यक्त होता है, और जब वह कल्प समाप्त होता है, वह सूक्ष्म रूप प्राप्त करता है। जब कल्प पुन: व्यक्त होता है, ज्ञान भी व्यक्त होता है। यहाँ तक यह सिद्धान्त ठीक है। पर यह कहना कि केवल यह वेद नामक प्रन्य ही उस परम तत्त्व का ज्ञान है, कुतर्क है। मनु ने एक स्थान पर कहा है कि वेद में वही अंश वेद है, जो बुद्धिग्राह्य, विवेकसम्मत है। हमारे अनेक दार्शनिकों ने यही दृष्टिकोण अपनाया है।

36. दुनिया के सब धर्मग्रन्थों में केवल वेद ही यह घोषणा करते हैं कि वेदाध्ययन गौण है। सच्चा अध्ययन तो वह है, 'जिससे अक्षर ब्रह्म प्राप्त हो'। और वह न पढ़ना है न विश्वास करना है, न तर्क करना है, वरन् अतिचेतन ज्ञान अथवा समाधि है।

37. हम कभी निम्नस्तरीय पशु थे। हम समझते हैं कि वे हमसे कुछ भिन्न वस्तु हैं। मैं देखता हूँ पश्चिम वाले कहते हैं, 'दुनिया हमारे लिए बनी है।' यदि चीते पुस्तकें लिख सकते, तो वे यही कहते कि मनुष्य उनके लिए बना है, और मनुष्य सब से पापी प्राणी है, क्योंकि वह उनकी (चीते की) पकड़ में सहज नहीं आता। आज जो कीड़ा तुम्हारे पैरों के नीचे ले रहा है, वह आगे होनेवाला ईश्वर है।

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