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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


अनध्याय

जमुना की जीवन-गाथा समाप्त हो चुकी थी और हम लोगों को उसके जीवन का ऐसा सुखद समाधान देख कर बहुत संतोष हुआ। ऐसा लगा कि जैसे सभी रसों की परिणति शांत या निर्वेद में होती है, वैसे ही उस अभागिन के जीवन के सारे संघर्ष और पीड़ा की परिणति मातृत्व से प्लावित, शांत, निष्कंप दीपशिखा के समान प्रकाशमान, पवित्र, निष्कलंक वैधव्य में हुई।

रात को जब हम लोग हकीम जी के चबूतरे पर अपनी-अपनी खाट और बिस्तरा ले कर एकत्र हुए तो जमुना की जीवन-गाथा हम सबों के मस्तिष्क पर छाई हुई थी और उसको ले कर जो बातचीत तथा वाद-विवाद हुआ उसका नाटकीय विवरण इस प्रकार है :

मैं : (खाट पर बैठ कर, तकिए को उठा कर गोद में रखते हुए) भई कहानी बहुत अच्छी रही।

ओंकार : (जम्हाई लेते हुए) रही होगी।

प्रकाश : (करवट बदल कर) लेकिन तुम लोगों ने उसका अर्थ भी समझा?

श्याम : (उत्साह से) क्यों, उसमें कौन कठिन भाषा थी?

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