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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


सिर्फ प्रकाश जब आया और उससे सबने कहा कि आज बहुत उमस है तो फलसफा छाँटते हुए अफलातून की तरह मुँह बना कर बोला (मेरी इस झल्लाहट-भरी टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे क्योंकि पिछली रात उसने मार्क्सवाद के सवाल पर मुझे नीचा दिखाया था और सच्चे संकीर्ण मार्क्सवादियों की तरह से झल्ला उठा था और मैंने तय कर लिया था कि वह सही बात भी करेगा तो मैं उसका विरोध करूँगा), बहरहाल प्रकाश बोला, 'भाईजी, उमस हम सभी की जिंदगी में छाई हुई है, उसके सामने तो यह कुछ न नहीं है। हम सभी निम्नमध्य श्रेणी के लोगों की जिंदगी में हवा का एक ताजा झोंका नहीं। चाहे दम घुट जाए पर पत्ता नहीं हिलता, धूप जिसे रोशनी देना चाहिए हमें बुरी तरह झुलसा रही है और समझ में नहीं आता कि क्या करें। किसी-न-किसी तरह नई और ताजी हवा के झोंके चलने चाहिए। चाहे लू के ही झोंके क्यों न हों।'

प्रकाश की इस मूर्खता-भरी बात पर कोई कुछ नहीं बोला। (मेरे झूठ के लिए क्षमा करें क्योंकि माणिक ने इस बात की जोर से ताईद की थी, पर मैंने कह दिया न कि मैं अंदर-ही-अंदर चिढ़ गया हूँ!)

खैर, तो माणिक मुल्ला बोले कि, 'जब मैं प्रेम पर आर्थिक प्रभाव की बात करता हूँ तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढाँचा हमारे मन पर इतना अजब-सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएँ उससे स्वाधीन नहीं हो पातीं और हम-जैसे लोग जो न उच्चवर्ग के हैं, न निम्नवर्ग के, उनके यहाँ रुढ़ियाँ, परंपराएँ, मर्यादाएँ भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिला कर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र-मात्र रह जाते हैं हमारे अंदर उदार और ऊँचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब-सी जड़ मूर्च्छना हम पर छा जाती है।'

प्रकाश ने जब इसका समर्थन किया तो मैंने इनका विरोध किया और कहा, 'लेकिन व्यक्ति को तो हर हालत में ईमानदार बना रहना चाहिए। यह नहीं कि टूटता-फूटता चला जाए।'

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