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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।

निवेदन

'गुनाहों का देवता ' के बाद यह मेरी दूसरी कथा-कृति है। दोनों कृतियों में काल-क्रम का अंतर पड़ने के अलावा उन बिंदुओं में भी अंतर आ गया है जिन पर हो कर मैंने समस्या का विश्लेषण किया है।

कथा-शैली भी कुछ अनोखे ढंग की है, जो है तो वास्तव में पुरानी ही, पर इतनी पुरानी कि आज के पाठक को थोड़ी नई या अपरिचित-सी लग सकती है। बहुत छोटे-से चौखटे में काफी लंबा घटना-क्रम और काफी विस्तृत क्षेत्र का चित्रण करने की विवशता के कारण यह ढंग अपनाना पड़ा है।

मेरा दृष्टिकोण इन कथाओं में स्पष्ट है; किंतु इनमें आए हुए मार्क्सवाद के जिक्र के कारण थोड़ा-सा विवाद किसी क्षेत्र से उठाया जा सकता है। जो लोग सत्य की ओर से आँख मूँद कर अपने पक्ष को गलत या सही ढंग से प्रचारित करने को समालोचना समझते हैं, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि साहित्य की प्रगति में उनका कोई रचनात्मक महत्व मैं मानता ही नहीं; हाँ, जिसमें थोड़ी-सी समझदारी, सहानुभूति और परिहास-प्रवृत्ति है उनसे मुझे एक स्पष्ट बात कहनी है :

पिछले तीन-चार वर्षों में मार्क्सवाद के अध्ययन से मुझे जितनी शांति, जितना बल और जितनी आशा मिली है, हिंदी की मार्क्सवादी समीक्षा और चिंतना से उतनी ही निराशा और असंतोष। अपने समाज, अपनी जन-संस्कृति और उसकी परंपराओं से वे नितांत अनभिज्ञ रहे हैं। अत: उनके निष्कर्ष ऐसे ही रहे हैं कि उन पर या तो रोया जा सकता है या दिल खोल कर हँसा जा सकता है। फिर उसकी कमियों की ओर इशारा करने पर वे खीज उठते हैं, वह और भी हास्यापद और दयनीय है।

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