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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


दो-तीन बार सत्ती आई पर माणिक मुल्ला अपने घर से बाहर नहीं निकले और कहला दिया कि नहीं हैं। माणिक अक्सर जमुना के यहाँ जाया करते थे और एक दिन जमुना के दरवाजे पर सत्ती मिली। माणिक कुछ नहीं बोले तो सत्ती रो कर बोली, 'नसीब रूठ गया तो तुमने भी साथ छोड़ दिया। क्या गलती हो गई मुझसे?' माणिक ने घबरा कर चारों ओर देखा। भइया के दफ्तर से लौटने का वक्त हो गया था। सत्ती उनकी घबराहट समझ गई, क्षण-भर उनकी ओर बड़ी अजब निगाह से देखती रही फिर बोली, 'घबराओ न माणिक! हम जा रहे हैं।' और आँसू पोंछ कर धीरे-धीरे चली गई।

उन्हीं दिनों भाभी और माणिक के बीच अक्सर झगड़ा हुआ करता था क्योंकि भाभी-भइया साफ कह चुके थे कि माणिक को अब कहीं नौकरी कर लेनी चाहिए। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं। पर माणिक पढ़ना चाहते थे। भाभी ने एक दिन जब बहुत जली-कटी सुनाई तो माणिक उदास हो कर एक बाग में जा कर बरगद के नीचे बेंच पर बैठ गए और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

थोड़ी देर बाद उन्हें किसी ने पुकारा तो देखा सामने सत्ती। बिलकुल शांत, मुरदे की तरह सफेद चेहरा, भावहीन जड़ आँखें, आई और आ कर पाँवों के पास जमीन पर बैठ गई और बोली, 'आखिर जो सब चाहते थे वह हो गया।'

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