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श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में

अथ तंत्रोक्त रात्रिसूक्त

ॐ  विस्वेस्वरि जगधारिनी, पालति पुनि संहार।
निद्रा  रूपा  हरि   नमन,   तेज   अपार   तिहार।।


पुनि दोउ कर जोरी अस्तुति तोरी, करन लगे विधि नाना।
स्वाहा तुम मैया स्वर रचवैया, स्वधा वषट जग नाना।।
मां प्रनव स्वरूपा ओम् अनूपा अक्षर सुधा समाना।।
सोई बिन्दु कहावै ॐ बनावै, कहिं नहिं सकत सुजाना।।१।।

संध्या सावित्री, जग जनयित्री पराजननि जगदम्बा।
सब जग को धारे सृजे संहारे लागत नाहिं विलम्बा।
संसार रचायी सृष्टि कहायी थिति बनि पालति अम्बा।
तुम संहृतिरूपा जग सब लोपा जगमयि जग अवलम्बा।।२।

विद्या तुम महती मेधा सुमृती, मातु हे महामाया।
जय महासुरी मां महती मोहा महादेवि करु दाया।।
तू प्रकृतिस्वरूपा त्रिगुन अनूपा व्याप्त भुवन निकाया।
मां कालनिशा जै मोह निशा हे, महारात्रि कहलाया।।३।।

मां तुम्हीं उमा हो तुम्हीं रमा हो तू ही बुद्धि प्रदायिनि।
लज्जा अरु पुष्टी माता तुष्टी शांति क्षमा कहलायिनि।।
जय खंगिनि सूलिनि चक्रिनि घोरिनि गदा संख धनु धारिनि।
कर परिध संभारे, भुसुंडि सुधारे सर साजे संहारिनि।।४।।

जय जय माँ सरला जय जय विमला रूप रासि नहिं पारा।
जय अपर परनि पर जय परमेस्वरि सत् अरु असत् अधारा।।
देखेउँ जग महीं अस कहुं नाहीं, जहां नाहिं विसतारा।
जो जग को कर्ता जग संहर्त्ता, भर्ता जगदाधारा।।५।।

निद्रा महं लीना, निज बस कीना, कौन होय पुनि पारा।
बैकुण्ठ बिहारी, अज, त्रिपुरारी, तब लगि लै अवतारा।।
महिमा तव माता जब बिख्याता तुम अति देवि उदारा।
तब चरननि लागी जन अनुरागी, करहु मातु उद्धारा।।६।।

मधु कैटभ निसिचर प्रबल, मातु मोह में डारि।
देवि  प्रबोधहु  हरिहुं  तम  करहुं  सत्रु  संहार।।


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