लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9644

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

212 पाठक हैं

श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में

पहला अध्याय

ॐ मां चण्डी को करि नमन, मार्कण्ड मुनिराज।
बरनत कथा पुनीत अति, सावर्णी को राज।।१।।

अष्टम मनु सावर्णि सुजाना।
सो रवितनय सकल जग जाना।।
ताकर अव मैं कथा सुनावौं।
मां भगवती कृपा ते गावौं।।
सतवां मनु अंतर जब बीता।
मनु पद भयउ जगत महं रीता।।
कृपा कीन्ह जगदम्ब भवानी।
अष्टम मनु सावर्णिहिं आनी।।
स्वारोचिष मन्वन्तर काला।
सुरथ नाम इक भयउ भुआला।।
चैत्र वंश रह परम कुलीना।
तेहिं कुल उपजेउ सुरथ प्रवीना।।
सुत सम सदा प्रजा निज पाला।
धरम धुरीन सुरथ महिपाला।।
दण्डनीति अतिसय दृढ़ रहेउ।
धन, वैभव, सुख संपति लहेउ।।


तदपि सत्रु कछु नृपति के, कोलविधंसी नाम।
कियउ चढ़ाई सुरथ पर, भयउ महासंग्राम।।२।।

रिपु अति छोट कुदिन जब आवा।
थाके सुरथ पराजय पावा।।
रन तजि सुरथ आइ राजधानी।
भूपति पुरपति होइ सुखमानी।।
तदपि सत्रु घेरा गढ़ जाई।
सुरथ नगर पर कीन्ह चढ़ाई।।
सचिवन राजहिं देखेउ दीना।
धन, संपदा, सेन, गढ़ छीना।।
मृगया व्याज गवन नृप कीन्हा।
अति घन वन हित आपन चीन्हा।।
फिरत विपिन आश्रम इक दीसा।
वास करत जह मेध मुनीसा।।
वटु मण्डली फिरत चहुं ओरा।
प्रीति करत हरि-मृग, अहि-मोरा।।
करि प्रनाम कहि निज इतिहासा।
 कछुक काल कीन्हेउ नृप वासा।।


माया ठगिनी अति प्रबल, नृप कहं घेरेसि आइ।
जागी पुरजन प्रीति उर, सुरथहिं रह्यो न जाइ।।३।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book