धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
ये लोग तत्त्वों को स्वत: प्रमाणित मानते हैं : एक को 'आकाश’ कहते हैं, जो वैज्ञानिकों के 'ईथर' से मिलता-जुलता है और दूसरे को 'प्राण’ कहते हैं, जो एक प्रकार की शक्ति है। 'प्राण’ के विषय में इनका कहना है कि इसके कम्पन से विश्व की उत्पत्ति होती है। जब सृष्टि-चक्र का विराम होता है, व्यक्त प्रकृति क्रमश: सूक्ष्मतर होते-होते आकाश तत्त्व के रूप में विघटित हो जाती है, जिसे हम न देख सकते हैं और न अनुभव ही कर सकते हैं; किन्तु इसी से पुन: समस्त वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं।
प्रकृति में हम जितनी शक्तियां देखते हैं, जैसे, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण, विकर्षण अथवा विचार, भावना एवं स्नायविक गति - सभी अन्ततोगत्वा विघटित होकर प्राण में परिवर्तित हो जाती हैं और प्राण का स्पन्दन रुक जाता है। इस स्थिति में वह तब तक रहता है, जब तक सृष्टि का कार्य पुन: प्रारम्भ नहीं हो जाता। उसके प्रारम्भ होते ही 'प्राण' में पुन: कम्पन होने लगते हैं। इस कम्पन का प्रभाव 'आकाश’ पर पड़ता है और तब सभी रूप और आकार एक निश्चित क्रम में बाहर प्रक्षिप्त होते हैं।
सब से पहले जिस दर्शन की चर्चा मैं तुमसे कहूँगा, वह द्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। द्वैतवादी यह मानते हैं कि विश्व का स्रष्टा और शासक ईश्वर शाश्वत रूप से प्रकृति एवं जीवात्मा से पृथक् है। ईश्वर नित्य है, प्रकृति नित्य है तथा सभी आत्माएँ भी नित्य हैं। प्रकृति तथा आत्माओं की अभिव्यक्ति होती है एवं उनमें परिवर्तन होते हैं परन्तु ईश्वर ज्यों का त्यों रहता है।
द्वैतवादियों के अनुसार ईश्वर सगुण है; उसके शरीर नहीं है, पर उसमें गुण हैं। मानवीय गुण उसमें विद्यमान हैं; जैसे वह दयावान है, वह. न्यायी है, वह सर्वशक्तिमान है, वह बलवान है, उसके पास पहुँचा जा सकता है, उसकी प्रार्थना की जा सकती है, उसकी भक्ति की जा सकती है, भक्ति से वह प्रसन्न होता है, आदि आदि। संक्षेप में वह मानवीय ईश्वर है; अन्तर इतना है कि वह मनुष्य से अनन्त गुना बड़ा है, तथा मनुष्य में जो दोष हैं, वह उनसे परे है। 'वह अनन्त शुभ गुणों का भण्डार है' - ईश्वर की यही परिभाषा लोगों ने दी है। वह उपादानों के विना सृष्टि नहीं कर सकता। प्रकृति ही वह उपादान है, जिससे वह समस्त विश्व की रचना करता है।
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