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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


कुछ वेदान्तेतर द्वैतवादी जिन्हें 'परमाणुवादी' कहते हैं, यह मानते हैं कि प्रकृति असंख्य परमाणुओं के सिवा और कुछ नहीं है और ईश्वर की इच्छा-शक्ति इन परमाणुओं में सक्रिय होकर सृष्टि करती है, वेदान्ती लोग इस परमाणु सिद्धान्त को नहीं मानते। उनका कहना है कि यह नितान्त तर्कहीन है। अविभाज्य परमाणु रेखागणित के बिन्दुओं की तरह हैं, खण्ड और परिमाणरहित। किन्तु ऐसी खण्ड और परिमाणरहित वस्तु को अगर असंख्य बार गुणित किया जाय, तो भी वह ज्यों की त्यों रहेगी। फिर, कोई वस्तु, जिसके अवयव नहीं, ऐसी वस्तु का निर्माण नहीं कर सकती, जिसके विभिन्न अवयव हों। चाहे जितने भी शून्य इकट्ठे किये जायँ, उनसे कोई पूर्ण संख्या नहीं बन सकती। इसलिए अगर ये परमाणु अविभाज्य हैं तथा परिमाणरहित हैं, तो इनसे विश्व की सृष्टि सर्वथा असम्भव है। अतएव वेदान्ती द्वैतवादी अविश्लिष्ट एवं अविभेद्य प्रकृति में विश्वास करते हैं, जिससे ईश्वर सृष्टि की रचना करता है।

भारत में अधिकांश लोग द्वैतवादी हैं, मानवप्रकृति सामान्यत: इससे अधिक उच्च कल्पना नहीं कर सकती। हम देखते हैं कि संसार में धर्म में विश्वास रखनेवालों में नब्बे प्रतिशत लोग द्वैतवादी ही हैं। यूरोप तथा एशिया के सभी धर्म द्वैतवादी हैं, वैसा होने के लिए विवश हैं। कारण, सामान्य मनुष्य उस वस्तु की कल्पना नहीं कर सकता, जो मूर्त न हो। इसलिए स्वभावत: वह उस वस्तु से चिपकना चाहता है, जो उसकी बुद्धि की पकड़ में आती है। तात्पर्य यह कि वह उच्च आध्यात्मिक भावनाओं को तभी समझ सकता है, जब वे उसके स्तर पर नीचे उतर आयें। वह सूक्ष्म भावों को स्थूल रूप में ही ग्रहण कर सकता है। सम्पूर्ण विश्व में सामान्य लोगों के लिए यही धर्म है। वे एक ऐसे ईश्वर में विश्वास करते हैं, जो उनसे पूर्णतया पृथक्, मानो एक बड़ा राजा, अत्यन्त बलिष्ठ सम्राट हो। साथ ही वे उसे पृथ्वी पर के राजाओं की अपेक्षा अधिक पवित्र बना देते हैं। वे उसे समस्त दुर्गुणों से रहित और समस्त सद्गुणों का आधार बना देते हैं। जैसे कहीं अशुभ के बिना शुभ और अन्धकार के बिना प्रकाश सम्भव हो!

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