धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
द्वैतवादियों का एक दूसरा विचित्र सिद्धान्त यह है कि सभी आत्माएँ कभी न कभी मोक्ष को प्राप्त कर ही लेंगी; कोई भी छूटेगी नहीं। नाना प्रकार के उत्थान-पतन तथा सुख-दुःख के भोग के उपरान्त अन्त में ये सभी आत्माएँ मुक्त हो जायेंगी। आखिर मुक्त किससे होंगी? सभी हिन्दू सम्प्रदायों का मत है कि इस संसार से मुक्त हो जाना है। न तो यह संसार, जिसे हम देखने तथा अनुभव करते हैं, और न वह जो काल्पनिक है, अच्छा, और वास्तविक हो सकता है, क्योंकि दोनों ही शुभ और अशुभ से भरे पड़े हैं। द्वैतवादियों के अनुसार इस संसार से परे एक ऐसा स्थान है, जहाँ केवल सुख और केवल शुभ ही है ; जब हम उस स्थान पर पहुँच जाते हैं, तो जन्म-मरण के पाश से मुक्त हो जाते हैं।
कहना न होगा कि यह कल्पना उन्हें कितनी प्रिय है, वहाँ न तो कोई व्याधि होगी और न मृत्यु ; वहाँ शाश्वत सुख होगा और सदा वे ईश्वर के समक्ष रहते हुए परमानन्द का अनुभव करते रहेंगे। उनका विश्वास है कि सभी प्राणी - कीट से लेकर देवदूत और देवता तक - कभी न कभी उस लोक में पहुचेंगे ही, जहाँ दुःख का लेश भी नहीं होगा। किन्तु अपने इस जगत् का अन्त नहीं होगा ; तरंग की भाति यह सतत चलता रहेगा। निरन्तर परिवर्तित होते रहने के बावजूद, इसका कभी अन्त नहीं होता। मोक्ष प्राप्त करनेवाली आत्माओं की संख्या अपरिमित है। उनमें से कुछ तो पौधों में हैं, कुछ पशुओं में, कुछ मनुष्यों में तथा कुछ देवताओं में हैं। पर सब के सब - उच्चतम देवता भी - अपूर्ण हैं, बन्धन में हैं। यह बन्धन क्या है? जन्म और मरण की अपरिहार्यता। उच्चतम देवों को भी मरना पड़ता है।
देवता क्या है? वे विशिष्ट अवस्थाओं या पदों के प्रतीक हैं। उदाहरणस्वरूप, इन्द्र जो देवताओं के राजा हैं, एक पद-विशेष के प्रतीक हैं। कोई अत्यन्त उच्च आत्मा इस कल्प में उस पद पर विराजमान है। इस कल्प के बाद पुन: मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी और इस कल्प में जो दूसरी उच्चतम आत्मा होगी, वह उस पद पर जाकर आसीन होगी। ठीक यही बात अन्य सभी देवताओं के बारे में भी है। वे विशिष्ट पदों के प्रतीक हैं, जिन पर एक के बाद एक, करोड़ों आत्माओं ने काम किया है, और वहाँ से उतरकर मनुष्य का जन्म लिया है। जो मनुष्य कल की आकांक्षा से इस लोक में परोपकार तथा अच्छे काम करते हैं, और स्वर्ग अथवा यशप्राप्ति की आशा करते हैं; वे मरने पर देवता बनकर अपने किये का फल भोगते हैं। याद रहे कि यह मोक्ष नहीं है। मोक्ष, फल की आशा रखने से नहीं मिलता।
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