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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
मनुष्य जिस किसी भी चीज की आकांक्षा करता है, ईश्वर उसे वह देता है। आदमी शक्ति चाहता है, पद चाहता है, देवताओं की भांति सुख चाहता है; उसकी इच्छाएँ तो पूरी हो जाती हैं, पर उसके कर्म का कोई शाश्वत फल नहीं होता। एक निश्चित अवधि के बाद उनके पुण्य का प्रभाव समाप्त हो जाता है - चाहे वह अवधि कितनी ही लम्बी क्यों न हों। उसके समाप्त होने पर उसका प्रभाव समाप्त हो जायगा और तब वे देवता पुन: मनुष्य हो जायँगे और उन्हें मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा अवसर मिलेगा। निम्न कोटि के पशु क्रमश: मनुष्यत्व की ओर बढ़ेंगे, फिर देवत्व की ओर; और तब शायद पुन: मनुष्य बनेंगे, अथवा पशु हो जायँगे। यह क्रम तब तक चलता रहेगा, जब तक वे वासना से रहित नहीं हो जाते, जीवन की तृष्णा को छोड़ नहीं देते और 'मैं और मेरा, के मोह से मुक्त नहीं हो जाते। यह 'मैं और मेरा' ही संसार में सारे पापों का मूल है। अगर तुम किसी द्वैतवादी से पूछो कि क्या तुम्हारा बच्चा तुम्हारा है? तो फौरन वह कहेगा - ''यह तो ईश्वर का है; मेरी सम्पत्ति मेरी नहीं, बल्कि ईश्वर की है।'' सब कुछ ईश्वर का है - ऐसा ही मानना चाहिए।
भारत में ये द्वैतवादी पक्के निरामिष तथा अहिंसावादी हैं। किन्तु उनके ये विचार बौद्ध लोगों के विचारों से भिन्न हैं। अगर तुम किसी बौद्ध धर्मावलम्बी से पूछो - ''आप क्यों अहिंसा का उपदेश देते हैं?'' तो वह उत्तर देगा - ''हमें किसी के प्राण लेने का अधिकार नहीं है।'' किन्तु अगर तुम किसी द्वैतवादी से पूछो - ''आप जीव-हिंसा क्यों नहीं करते?'' तो वह कहेगा, ''क्योंकि सभी जीव तो ईश्वर के हैं।'' इस तरह द्वैतवादी मानते हैं कि 'मैं और मेरा' का प्रयोग केवल ईश्वर के सम्बन्ध में ही करना चाहिए। 'मैं' का सम्बोधन केवल वही कर सकता है, और सारी चीजें भी उसी की हैं। जब मनुष्य इस स्तर पहुँच जाय कि 'मैं और मेरा' का भाव उसमें न रहे, सारी चीजों को ईश्वरीय मानने लगे, हर प्राणी से प्रेम करने लगे, और किसी पशु के लिए भी अपना जीवन देने के लिए तैयार रहे - और ये सारे भाव बिना किसी प्रतिफल की आकंक्षा से हों, तो उसका हृदय स्वत: पवित्र हो जायगा, तथा उस पवित्र हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा। ईश्वर ही सभी आत्माओं के आकर्षण का केन्द्र है।
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