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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''पुरुषार्थी भविष्य की चिन्ता कभी नहीं करते।'' उन्होंने जवाब दिया। हमेशा की तरह आज भी उन्होंने सवाल को उड़ा देना चाहा था।

मैं सोच में पड़ गया, लेकिन पूछे बिना न रह सका, ''कभी आप स्वयं अपने भविष्य के बारे में भी सोचती हैं?''

''मैं भी पुरुषार्थी हूँ।''

शास्त्रार्थ शैली की ऐसी अनेक बातें, जो उनके साथ हुई थीं, सदा के लिए मेरे मन पर अंकित हो चुकी हैं।

० ०

उस दिन घर लौटते देरी हो गई थी। जब विले-पार्ले पहुँचा, रात के ग्यारह बज रहे थे। नाके पर नरेन्द्र मेरे ही इन्तजार में खड़ा दिखाई दिया। मैंने पूछा  ''क्या बात है?''

उसने नजरें झुकाकर, रोने जैसे स्वर में कहा, ''सुनन्दा भाभी ने आत्महत्या कर ली है।''

मैं सन्न रह गया।

अनेक क्षणों बाद ही मैं पूछ सका, ''क्यों? कैसे? कब?''

मेरे अनेक प्रश्नों के उत्तर में नरेन्द्र बोला, ''आपको प्रवीण भाई ने बुलाया है। इसी वक्त मेरे साथ चलिए। रास्ते में सब बताऊँगा।''

मैंने घर में अपना बैग रखा। भोजन किये बिना ही मैं लपक चला। बीबी से कह दिया कि चिन्ता न करे। नाके पर टैक्सी मिल गई। मैं और नरेन्द्र, प्रवीण भाई के घर की तरफ झपटे।

चलती टैक्सी में मेरी नज़रों के सामने प्रवीण और सुनन्दा के चेहरे तैरने लगे। वे सुखी दम्पत्ति थे। अभी दो दिन पहले ही उनसे मुलाकात हुई थी। तब भी दोनों कितने सन्तुष्ट और प्रसन्न थे। अचानक क्या हुआ?

नरेन्द्र ने कहा था कि रास्ते में सब बतायेगा, लेकिन विशेष वह भी नहीं जानता था। मेरे प्रश्न अनुत्तरित रहे और टैक्सी झपटती रही।

किसी समय मैंने और प्रवीण ने एक ही कन्स्ट्रक्शन कम्पनी में काम किया था। वह सौराष्ट्र का निवासी था। हँसमुख, होशियार और मेहनती। हम दोनों के बीच दोस्ती पक्की होते देर नहीं लगी थी। चलती टैक्सी में सब याद आने लगा। प्रवीण की शादी हो चुकी थी, लेकिन पत्नी को उसने सौराष्ट्र में, उसके मायके में छोड़ रखा था। बम्बई में प्रवीण एक रिश्तेदार के यहीं रह रहा था। पत्नी के नाम वह लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखा करता। ऐसा दीवाना था कि चिट्ठियाँ डाक में डालने से पहले हमें पढ़कर सुनाया करता। शृंगार और प्रणय की ढेरों कविताएँ और शेर-ओशायरी उसने जमा कर रखी थीं। हर चिट्ठी में उन्हें वह उद्धृत किया करता। हम उसे हमेशा सुझाया करते कि पत्नी को वह बम्बई बुला ले, किन्तु उसका सवाल होता, ''मकान का इन्तजाम कहाँ है? उसे रखूँगा कहाँ?''

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