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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

सहसा उसे एक कमरा किराये पर मिलने लगा, जिसके लिए पाँच हजार रुपये का डिपॉजिट देना जरूरी था। पाँच हजार प्रवीण के पास थे नहीं। पत्नी के विरह में वह जिस तरह तड़पता था, हम सबने देखा था। उसकी सहायता के लिए हम अनायास तैयार हो गये। जिसकी जितनी शक्ति थी, उसने उतना उधार दिया। कम्पनी से भी दो हजार का लोन दिलवा दिया गया और प्रवीण को कमरा मिल गया। सुनन्दा ने सौराष्ट्र से आकर, महीने भर में, सारी गृहस्थी जमा ली। प्रवीण-सुनन्दा ने हम सबको अपने नन्हे-से. लेकिन सुन्दरता से सजे-धजे कमरे पर चाय-नाश्ते के लिए बुलाया। सब बड़े शौक से गये। उस दिन सुनन्दा को मैंने पहली बार देखा था।

वह सलोनी थी। स्तब्ध कर देने वाला व्यक्तित्व तो उसके पास नहीं था लेकिन वह ऐसी थी कि जिसकी इज्जत करने की ललक किसी के भी मन में पैदा हो जाये। उसकी हर बात में सौम्यता और सहजता थी। चाय-नाश्ते के बाद हम लोग बड़ी देर तक बैठे गप्पें हाँकते रहे थे। सुनन्दा विशेष पढी-लिखी नहीं थी फिर भी, दूरदर्शिता और चतुराई की उसमें कमी नहीं थी।

फिर तो प्रवीण के कमरे पर जाकर, सुनन्दा के हाथ की चाय पीने के अवसर कई बार आये थे। बम्बई आकर सुनन्दा खुश थी। केवल एक शिकायत थी उसे, ''पड़ोस अच्छा नहीं है।' लेकिन केवल पाँच हजार के डिपॉजिट पर, बम्बई जैसे शहर में, अच्छे पड़ोस वाला कमरा कैसे मिलता?

टैक्सी झटके के साथ रुकी। उतरकर हमने बिल अदा किया। जिस दरवाजे पर हमेशा सुनन्दा खड़ी होकर स्वागत करती थी, वहीं आज भीड़ लगी हुई थी। दो सिपाही खड़े थे। भीड़ में से रास्ता निकालकर में अन्दर घुसा।

हथेलियों में चेहरा छिपाकर प्रवीण हो रहा था। वह सुनन्दा की लाश के पास ही बैठा हुआ था। लाश देखकर पहला विचार मेरे मन में यही आया, ''क्या महायोगिनी अम्बिकादेवी इसे भी जिन्दा कर सकेगी?''

तभी सायरन की तीखी आवाज ने वातावरण चीर दिया। एम्बुलेन्स आ पहुँची थी और पुलिस भी।

हँसमुख प्रवीण, उस वक्त बूढ़ा और थका हुआ लग रहा था। क्षणभर में क्या से क्या हो गया था उसके जीवन में। सौराष्ट्र से पत्नी को यहाँ लाते वक्त क्या उसने सपने में भी सोचा होगा कि ऐसा हो जायेगा? उसे सान्त्वना देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे।

पुलिस, सान्त्वना दिये बगैर, प्रवीण का बयान लिखवा रही थी-

''आज मैं काम के कारण देरी से आने वाला था। मैंने अपने पड़ोसी चुन्नीलाल जी के यहाँ फोन किया कि सुनन्दा को मेरे देरी से आने की खबर दे दें। दस बजे मैं घर लौटा। दरवाजा उढ़का हुआ था। भीतर अन्धेरा था। दरवाजा ठेलकर मैंने रोशनी जलाई। मेरी चीख निकल गई। सुनन्दा को मैंने फर्श पर पड़े देखा। खटमल मारने की दवा की शीशी उसके हाथ में थी। पूरी शीशी उसने खाली कर दी थी.........। ''

प्रवीण से आगे न बोला जा सका। वह रोने लगा।

० ० ०

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