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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


चेहरे पर उसके मुस्कराहट जरूर खेल रही थी, पर स्वर से स्पष्ट होता था कि उसका अंत:करण कितनी व्यथा से भरा है। रमा और विश्वेपश्व री-दोनों ही निश्चरय में पड़ कर उद्विग्न हो उठीं।

'बड़ी उमर हो तुम्हारी, रमेश बेटा! ऐसी बात मुँह से नहीं निकालते!'-कहते--कहते उन दोनों की आँखें भर आईं। उन्होंने भरे गले से पूछा -'क्या यहाँ तबियत ठीक नहीं रहती तुम्हारी?'

अपने बलिष्ठ शरीर पर नजर डाल कर रमेश ने कहा-'शरीर तो परिश्रम की दाल-रोटी से बना है! इतनी आसानी से खराब होने वाला नहीं है! मेरी तबियत तो भली-चंगी है; लेकिन यहाँ रहना मुहाल हो रहा है, एक क्षण को भी। यहाँ हर घड़ी दम निकलता-सा है।'

उसकी तबीयत तो अच्छी है, जान कर विश्वेश्वघरी के जी में जी आया और निश्चिं तता की लंबी साँस खींच, हँसकर बोलीं-'तुम यहाँ पैदा हुए; यहाँ की माटी में ही खेल-कूदकर पले-पुसे, बड़े हुए। यही तुम्हारी जन्मभूमि है, फिर क्यों नहीं रहा जाता?'

'तुम जानती तो हो सब कुछ! मैं अपने मुँह से सब बातें नहीं कहना चाहता।'

थोड़ी देर तक सभी मौन रहे, फिर विश्वेश्वपरी बोलीं-'जानती हूँ जरूर; पर सब नहीं, थोड़ा-सा ही! और तभी कहती हूँ कि और कहीं जाने से भी काम नहीं बनने का!'

'पर यहाँ तो मैं किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाता!'

'इसीलिए तो तुम्हें यहाँ और भी जमना चाहिए! और फिर अपने इस हट्टे-कट्टे शरीर की तारीफ के पुल बाँध रहे थे सो क्या यों मुश्किलों से भागने के लिए बनाया है?'

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