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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

खूंदन सौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ।। 11।।

कटु वचन तो हरिजन ही सहते हैं, दूसरों से वे सहन नहीं हो सकते। धरती को कितना ही खोदो-खादो, वह सब सहन कर लेती है। और, नदी-तीर के वृक्ष बाढ़ को सह लेते हैं।

सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ।
पष छांड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ।। 12।।

हमारे अन्दर शीतलता का संचार हो गया है, यह समता आ जाने पर ही जाना जा सकता है। पक्ष-अपक्ष छोड़कर जबकि हम निष्पक्ष हो जायं। और कटुवचन जब अपना कुछ भी प्रभाव न डाल सकें।

'कबीर' सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ।। 13।।

कबीर कहते हैं- मेरा और कोई हितू नहीं सिवा मेरे एक सिरजनहार के। मुझ में गुण हो या अवगुण, वह मेरा कभी त्याग नहीं करता। ऐसा तो दुनियादार ही करते हैं स्वार्थ में बंधे होने के कारण।

साईं एता दीजिए, जामें कुटुंब समाइ।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाइ।। 14।।

ऐ मेरे मालिक! तू मुझे इतना ही दे, कि जिससे एक हट के भीतर मेरे कुटुम्ब की जरूरतें पूरी हो जायं। मैं भी भूखा न रहूं और जब कोई भला आदमी द्वार पर आ जाय, तो वह भूखा ही वापस न चला जाय। ('एता' यह शब्द एक उचित सीमा को बांधता है, संकेत करता है संयम की ओर। कुटुम्ब का तात्पर्य है सज्जन-समुदाय, न कि मात्र अपना ही स्थापित परिवार।)

नीर पियावत क्या फिरूं, सायर घर-भर बारि।
जो त्रिपावन्त होइगा, सो पीयेगा झखमारि।। 15।।

क्या पानी पिलाता फिरता है घर-घर जाकर? अन्तर्मुख होकर देखा तो घर-घर में, घट-घट में, सागर भरा लहरा रहा है। सचमुच जो प्यासा होगा, वह झख मारकर अपनी प्यास बुझा लेगा। (आत्मानन्द का सागर सभी के अन्दर भरा पड़ा है। 'तृषावंत' से तात्पर्य है सच्चे तत्व-जिज्ञासु से।)

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