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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

साध-असाध का अंग

जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि।। 1।।

उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं। पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहां है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं। (सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये।)

उज्जल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान।
धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान ।। 2।।

ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न भूल जाओ, उस पर विश्वास न करो, उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा है, कोई भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का नहीं। (दम्भी का दिया ज्ञान भी मंझधार में डुबो देगा।)

'कबीर' संगति साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बांवना, नींव न कहसी कोइ।। 3।।

कबीर कहते हैं- साधु की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, उससे सुफल मिलता ही है। चन्दन का वृक्ष बावना अर्थात् छोटा-सा होता है, पर उसे कोई नीम नहीं कहता, यद्यपि वह कहीं अधिक बड़ा होता है।

'कबीर' संगति साध की, बेगि करीजै जाइ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ।। 4।।

साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा। तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी।

मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ।। 5।।

तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं।

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