ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
विरह का अंग
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां।
कै हरि आया भाजिसी, कै हरि ही पास गयां।। 1।।
संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं, अन्तर की कसक दूर होने की नहीं, यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हां, अंदेशा यह दूर हो सकता है दो तरह से-या तो हरि स्वयं आ जायं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुंच जाऊं।
यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं।
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं।। 2।।
इस तन को जलाकर स्याही बना लूंगी, और जो कंकाल रह जायगा, उसकी लेखनी तैयार कर लूंगी। उससे प्रेम की पाती लिख-लिखकर अपने प्यारे राम को भेजती रहूंगी। ऐसे होंगे वे मेरे संदेसे।
बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ।। 3।।
बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है, डसता ही रहता है सदा, कोई भी मंत्र काम नहीं देता। राम का वियोगी जीवित नहीं रहता, और जीवित रह भी जाय तो वह बावला हो जाता है।
सब रग तंत, रबाब तन, विरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त।। 4।।
शरीर यह रबाब (सरोद) बन गया है- एक-एक नस तांत हो गयी है। और, बजानेवाला कौन है इसका? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता है, या फिर विरह में डूबा हुआ यह चित्त।
अंषड़ियां झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िंयां छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकारि।। 5।।
बाट जोहते-जोहते आंखों में झाईं पड़ गई हैं, राम को पुकारते-पुकारते जीभ में छाले पड़ गये हैं। (पुकार यह आर्त न होकर विरह के कारण तप्त हो गयी है.... और इसीलिए जीभ पर छाले पड़ गये हैं।)
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