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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


इतने में रामदास चाय का सामान लेकर आया। विजय ने पीकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए फिर कहना आरम्भ किया, 'हम लोग बहुत दूर-दूर घूमकर एक चर्च के पास पहुँचे। इच्छा हुई कि घर लौट चलें, पर उस ताँगे वाले ने कहा-बाबू साहब, यह चर्च अपने ढंग का एक ही है, इसे देख तो लीजिये। हम लोग कुतूहल से प्रेरित होकर इसे देखने के लिए चले। सहसा अँधेरी झाड़ी में से वे ही दोनों गुण्डे निकल आये और एक ने पीछे से मेरे सिर पर डंडा मारा। मैं आकस्मिक चोट से गिर पड़ा। इसके बाद मैं नहीं जानता कि क्या हुआ, फिर जैसे यहाँ पहुँचा, वह सब तो आप लोग जानती हैं।'

घण्टी ने कहा, 'मैं यह देखते ही भागी। मुझसे जैसे किसी ने कहा कि ये सब मुझे ताँगे पर बिठाकर ले भागेंगे। आप लोगों की कृपा से हम लोगों की रक्षा हो गयी।'

सरला घण्टी का हाथ पकड़कर भीतर ले गयी। उसे कपड़ा बदलने को दिया दूसरी धोती पहनकर जब वह बाहर आयी, तब सरला ने पूछा, 'घण्टी! ये तुम्हारे पति हैं कितने दिन बीते ब्याह हुए?'

घण्टी ने सिर नीचा कर लिया। सरला के मुँह का भाव क्षण-भर मे परिवर्तित हो गया, पर वह आज के अतिथियों की अभ्यर्थना में कोई अन्तर नहीं पड़ने देना चाहती थी। वह अपनी कोठरी, जो बँगले से हटकर उसी बाग में थोड़ी दूर पर थी, साफ करने लगी। घण्टी दालान में बैठी हुई थी। सरला ने आकर विजय से पूछा, 'भोजन तो करियेगा, मैं बनाऊँ?'

विजय ने कहा, 'आपकी बड़ी कृपा है। मुझे कोई संकोच नहीं।'

इधर सरला को बहुत दिनों पर दो अतिथि मिले।

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