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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


मंगल चुप रहा।

'बोलो, क्या तुम्हारा हृदय पाप से भर गया था?'

मंगल अब भी चुप रहा। अब गोस्वामी जी से रहा न गया।

'तो तुम मौन रहकर अपना अपराध स्वीकार करते हो?'

वह बोला, नहीं।

'तुम्हे चित्त-शुद्धि की आवश्यकता है। जाओ सेवा में लगो, समाज-सेवा करके अपना हृदय शुद्ध बनाओ। जहाँ स्त्रियाँ सताई जाएँ, मनुष्य अपमानित हो, वहाँ तुमको अपना दम्भ छोड़कर कर्त्तव्य करना होगा। इसे दण्ड न समझो। यही तुम्हारा क्रियामाण कर्म है। पुरुषोत्तम ने लोक-संग्रह किया था, वे मानवता के हित में लगे रहे, अन्यथा अत्याचार के विरुद्ध सदैव युद्ध करते रहे। अपने किए हुए अन्याय के विरुद्ध तुम्हें अपने से लड़ना होगा। उस असुर को परास्त करना होगा। गुरुकुल यहाँ भेज दो; तुम अबलाओं की सेवा में लगो। भगवान् की भूमि भारत में जंगलों में अभी पशु-जीवन बिता रहे हैं। स्त्रियाँ विपथ पर जाने के लिए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पड़ेगा।

उठो!

मंगल ने गोस्वामी जी के चरण छुए। वह सिर झुकाये चला गया। गोस्वामी ने घूमकर यमुना की ओर देखा। वह सिर नीचा किये रो रही थी। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कृष्णशरण ने कहा, 'भूल जाओ यमुना, उसके अपराध को भूल जाओ।'

परन्तु यमुना मंगल को और उसके अपराध को कैसे भूल जाती?'

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