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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'वह भी तो दुलार करता है। बेचारा जो कुछ पाता है, वही तो देता है, फिर इसमें उलाहना कैसा, गाला!'

'जो पावै उसे बाँट दे।' गाला ने गम्भीर होकर कहा।

'यही तो उदारता है! कहो आज तो तुमने साड़ी पहन ही ली, बहुत भली लगती हो।'

'बाबा बहुत बिगड़े हैं, आज तीन दिन हुए, मुझसे बोले नहीं। नये! तुमको स्मरण होगा कि मेरा पढ़ना-लिखना जानकर तुम्हीं ने एक दिन कहा था कि तुम अनायास ही जंगल में शिक्षा का प्रचार करती हो-भूल तो नहीं गये?'

'नहीं मैंने अवश्य कहा था।'

'तो फिर मेरे विचार पर बाबा इतने दुखी क्यों हैं?'

'तब मुझे क्या करना चाहिए?'

'जिसे तुम अच्छा समझो।'

'नये! तुम बड़े दुष्ट हो-मेरे मन में एक आकांक्षा उत्पन्न करके अब उसका कोई उपाय नहीं बताते।'

'जो आकांक्षा उत्पन्न कर देता है, वह उसकी पूर्ति भी कर देता है, ऐसा तो नहीं देखा गया! तब भी तुम क्या चाहती हो?'

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