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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


किशोरी को विजय की स्मृति प्रायः चौंका देती है। एकान्त में वह रोती रहती है, उसकी वही तो सारी कमाई, जीवन भर के पाप-पुण्य का संचित धन विजय! आह, माता का हृदय रोने लगता है।

काशी आने पर एक दिन पण्डितजी के कुछ मंत्रों ने प्रकट रूप में श्रीचन्द्र को मोहन का पिता बना दिया। नन्दो चाची को अपनी बेटी मिल चुकी थी, अब मोहन के लिए उसके मन में उतनी व्यथा न थी। मोहन भी श्रीचन्द्र को बाबूजी कहने लगा था। वह सुख में पलने लगा।

किशोरी पारिजात के पास बैठी हुई अपनी चिन्ता में निमग्न थी। नन्दो के साथ पगली स्नान करके लौट आयी थी। चादर उतारते हुए नन्दो ने पगली से कहा, 'बेटी!'

उसने कहा, 'माँ!'

'तुमको सब किस नाम से पुकारते थे, यह तो मैंने आज तक न पूछा। बताओ बेटी वह प्यारा नाम।'

'माँ, मुझे चौबाइन 'घण्टी' नाम से पुकारती थी।'

'चाँदी की सुरीली घण्टी-सी ही तेरी बोली है बेटी।'

किशोरी सुन रही थी। उसने पास आकर एक बार आँख गड़ाकर देखा और पूछा, 'क्या कहा-घण्टी?'

'हाँ बाबूजी! वही वृंदावन वाली घण्टी!'

किशोरी आग हो गयी। वह भभक उठी, 'निकल जा डायन! मेरे विजय को खा डालने वाली चुड़ैल।'

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