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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


उधर विजय और मंगल में बातें हो रही थीं। विजय ने मंगल से कहा, 'यही तो इस पुण्य धर्म का दृश्य है! क्यों मंगल! क्या और भी किसी देश में इसी प्रकार का धर्म-संचय होता है जिन्हें आवश्यकता नहीं, उनको बिठाकर आदर से भोजन कराया जाये, केवल इस आशा से कि परलोक में वे पुण्य-संचय का प्रमाण-पत्र देंगे, साक्षी देंगे और इन्हें, जिन्हें पेट ने सता रखा है, जिनको भूख ने अधमरा बना दिया है, जिनकी आवश्यकता नंगी होकर वीभत्स नृत्य कर रही है-वे मनुष्य कुत्तों के साथ जूठी पत्तलों के लिए लड़ें, यही तो तुम्हारे धर्म का उदाहरण है!'

किशोरी को उस पर ध्यान देते देखकर विजय अपने कमरे में चला गया। किशोरी ने पूछा, 'कुछ खाओगी।'

युवती ने कहा, 'हाँ, मैं भूखी अनाथ हूँ।'

किशोरी को उसकी छलछलाई आँखें देखकर दया आ गयी। कहा, 'दुखी न हो, तुम यहीं रहा करो।'

'फिर मुँह छिपाकर पड़ गए! उठो, मैं अपने बनाये हुए कुछ चित्र दिखाऊँ।'

'बोलो मत विजय! कई दिन के बाद भोजन करने पर आलस्य मालूम हो रहा है।'

'पड़े रहने से तो और भी सुस्ती बढ़ेगी।'

'मैं कुछ घण्टों तक सोना चाहता हूँ।'

विजय चुप रह गया। मंगलदेव के व्यवहार पर उसे कुतूहल हो रहा था। वह चाहता था कि बातों में उसके मन की अवस्था जान ले; परन्तु उसे अवसर न मिला। वह भी चुपचाप सो रहा।

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