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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


विजय-'तुमने रहस्य की बात तो कही ही नहीं।'

मंगल-'विजय! रहस्य यही कि मै निर्धन हूँ; मैं अपनी सहायता नहीं कर सकता। मैं विश्वविद्यालय की डिग्री के लिए नहीं पढ़ रहा हूँ। केवल कुछ महीनों की आवश्यकता है कि मैं अपनी पाली की पढ़ाई प्रोफेसर देव से पूरी कर लूँ। इसलिए मैं यह सोना बेचना चाहता हूँ।'

विजय ने उस यंत्र को देखा, सोना तो उसने एक ओर रख दिया। परन्तु भोजपत्र के छोटे से बंडल को, जो उसके भीतर था, विजय ने मंगल का मुँह देखते-देखते कुतूहल से खोलना आरम्भ किया। उसका कुछ अंश खुलने पर दिखाई दिया कि उसमें लाल रंग के अष्टगंध से कुछ स्पष्ट प्राचीन लिपि है। विजय ने उसे खोलकर फेंकते हुए कहा, 'लो यह किसी देवी, देवता का पूरा स्तोत्र भरा पड़ा है।'

मंगल ने उसे आश्चर्य से उठा लिया। वह लिपि को पढ़ने की चेष्टा करने लगा। कुछ अक्षरों को वह पढ़ भी सका; परन्तु वह प्राकृत न थी, संस्कृत थी। मंगल ने उसे समेटकर जेब में रख लिया। विजय ने पूछा, 'क्या है कुछ पढ़ सके?'

'कल इसे प्रोफेसर देव से पढ़वाऊँगा। यह तो कोई शासन-पत्र मालूम पड़ता है।'

'तो क्या इसे तुम नहीं पढ़ सकते?'

'मैंने तो अभी प्रारम्भ किया है, कुछ पढ़ देते हैं।'

'अच्छा मंगल! एक बात कहूँ, तुम मानोगे मेरी भी पढ़ाई सुधर जाएगी।'

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