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खजाने का रहस्य

कन्हैयालाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9702

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भारत के विभिन्न ध्वंसावशेषों, पहाड़ों व टीलों के गर्भ में अनेकों रहस्यमय खजाने दबे-छिपे पड़े हैं। इसी प्रकार के खजानों के रहस्य

चार


प्रथम अभियान की सफलता ने ही डा. साहब को पर्याप्त यश- लाभ करा दिया था। समूचे पुरातत्व-विभाग में उनकी कीर्ति-पताका फहराने लगी थी।

बह बिंन्ध्याचल वाले मन्दिर की खोज में जाना चाहते थे। माधव अपने परिवार से मिलने गाँव गया था, अत: जैसे ही वह बापिस लौटा कि डा. साहब ने उसके सामने अपने मन की बात रखी।

माधव का तो उसमें दोहरा लाभ था। उसे भला क्या ऐतराज होता? प्रसन्न होता हुआ बोला- 'डा. साहब 'शुभस्यशीघ्रम' के आधार हमें कल ही चल देना चाहिए।'

'बिल्कुल ठीक! कल ही चलेंगे, आप तैयारी शुरू कर दो।' माधव ने उसी क्षण से मार्ग के लिए आबश्यक वस्तुओं को सहेजना और गाड़ी में करीने से रखना शुरू कर दिया। दोनों की रात भी रंग- बिरंगी कल्पनाओं में ही कटी और प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में ही उन्होंने गाड़ी स्टार्ट कर दी।

'आज आपने शकुन का विचार नहीं किया सर!' माधब ने डा. साहब से छेड़खानी की।

'यदि मुँह-अँधेरे यात्रा शुरू हो जाय तो शकुन विचारने की जरूरत नहीं होती। इस समय तो प्रकृति अपना आशीर्वाद सबको मुक्त-हस्त से बाँट रही होती है।' मुस्कराकर डा. साहब ने कहा।

'इस यात्रा में जंगली सुअरों का भय तो नहीं है?' यह पूछकर माधव हँसा।

'हाँ, सुअरों की बजाय इस यात्रा में बन्दरों से भेंट हो सकती है।'

'क्या?' कहकर माधव ऐसे चौंका, मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो। स्टीयरिंग पर उसके हाथों का सन्तुलन बिगड़ जाने से गाड़ी भी डगमगा गई थी।

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