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खजाने का रहस्य

कन्हैयालाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9702

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भारत के विभिन्न ध्वंसावशेषों, पहाड़ों व टीलों के गर्भ में अनेकों रहस्यमय खजाने दबे-छिपे पड़े हैं। इसी प्रकार के खजानों के रहस्य

ज्यों-ज्यों जीप के चक्के घूम रहे थे, उसके विचार भी गड्ड-मड्ड हो रहे थे। कभी दैवी विचार दब जाते तो कभी राक्षसी। अन्त में आसुरी विचारों ने दैवी विचारों को दबाकर ठहाका लगाया- 'मूर्ख माधव! जीबन में बार-बार ऐसे अवसर नहीं मिलते। तू यदि अब चूक गया तो फिर जीवन भर करोड़पति न बन सकेगा! करोड़पति न बन सकेगा!! हा... हा... हा... हा...'

इस विचार के आते ही उसने अपने मन में कोई कठोर निर्णय ले लिया। पीछे की ओर मुड़कर उसने एक बार डॉ. साहब की ओर देखा। बे विचारों में डूबे हुए अर्द्ध-निद्रित अवस्था में थे। अवसर उचित था। जीप को रोककर माधव अपनी सीट से उछला और डा. साहब के पास पहुँच गया। अभी वह कुछ समझ भी न पाये थे कि माधव के बलिष्ठ हाथों की अंगुलियाँ डा. साहब के गले का शिकंजा बन गयीं। एक मामूली-सी हिचकी आई और वे देवलोक के खजाने की खोज में चले गये।

माधब के मन का द्वन्द शान्त हो गया था। डा. साहब के शव को प्रणाम करके एक गहरे गड्ढे में धकेल दिया और फुर्र से जीप भगा दी।

वह तेजी से जीप चला रहा था। न तो उसे सर्पाकार पहाड़ी- राजमार्ग (सड़क) का भय था और न ही अपने जीने-मरने का। वह तो बस धुँआधार भागना चाहता था। थोड़ी देर बाद ही उसे ऐसा आभास हुआ मानो डा. साहब ने जोर से पुकारा हो- 'माधव जी' उसने गाड़ी की गति धीमी की, फिर पीछे मुड़कर देखा-कहीं कुछ भी न था। किन्तु फिर भी वह भय से सिहर उठा। उसे लगा कि डा. साहब का भूत उसका पीछा कर रहा है।

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