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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने टोका, “लेकिन होने को तो झूठ भी है, छल भी है, भ्रम भी है-क्या वह सब भी सत्य है? या कि आप होने की कुछ दूसरी परिभाषा करेंगे-पर यह कहना तो यही हुआ कि सत्य वह है जो सत्य है।”

“नहीं, सभी कुछ जो है। यानी उस में मिथ्या भी शामिल है, भ्रम भी। मुझे अगर भ्रम है, तो उसका होना भी होना है, और इसलिए वह भी सत्य है। और मुझे भूत दीखते हैं, तो भूत सत्य हैं; यों चाहे होते हों या न होते हों। यों कह लें कि भूत मेरा सत्य है, दूसरों का चाहे न हो।”

“तो सत्य बिल्कुल मुझ पर आश्रित है-व्यक्ति-सापेक्ष है? निरपेक्ष सत्य कुछ है ही नहीं?” रेखा ने आपत्ति के स्वर में कहा, “क्यों डाक्टर भुवन, आप भी ऐसा ही मानते हैं?”

भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही चन्द्र ने कहा, “हाँ। सत्य सापेक्ष ही है। निरपेक्ष वह हो ही कैसे सकता है? निरपेक्ष तो चीज़ें हैं-पदार्थ। पदार्थ सत्य नहीं है, निरा पदार्थ। सत्य तो पदार्थ का हमारा बोध है-और बोध व्यक्तिगत है।”

भुवन ने कहा, “मुझे तो लगता है कि हम सत्य और वस्तु का भेद भूल रहे हैं। भूत हों या न हों, अगर मेरे लिए हैं तो हैं-यानी यथार्थ हैं। पर सत्य - सत्य तो दूसरी बात है। यों चन्द्र जो पदार्थ और सत्य में भेद कर रहे हैं वह मैं मानता हूँ, पर वह अधूरी बात लगती है।”

“क्यों? आगे और क्या है?”

“पदार्थ वास्तव में एक अंश है। वास्तव में और भी बहुत कुछ आता है। विचार, कल्पनाएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ-ये सब भी वास्तव के अंग हैं जिन्हें पदार्थ नहीं कहा जा सकता।”

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