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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


बात कुछ अतिरिक्त गम्भीर हो गयी थी। दोनों सहसा चुप होकर सोचते रहे। थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “क्या हम लोग एक ही बात या दृष्टिकोण को समान्तर ढंग से नहीं कह रहे हैं? आप जिसे व्यक्तियों का सहज साक्षात् कहती हैं मैं उसे…”

“नहीं, डाक्टर भुवन, आप एक और सम्पूर्ण की बात कहते हैं, मैं एक और दूसरे एक की। सम्पूर्ण मेरे लिए केवल युक्ति-सत्य है - अपने-आपमें कुछ नहीं, केवल एक और एक की अन्तहीन आवृत्ति से पाया हुआ एक काल्पनिक योग-फल। आपकी मानवता एक विशाल मरुभूमि है - और मेरे ये सहज साक्षात् छोटे-छोटे हरे ओएसिस। न एक हरियाली से सम्पूर्ण मरु की कल्पना हो सकती है, न असंख्य हरियालियों को जोड़ देने से एक मरुभूमि बनती है। ये चीज़ें ही अलग हैं।”

भुवन ने जैसे मौका पाकर कहा, “ठीक। असंख्य हरियालियों से एक मरु नहीं बनता। तो यह क्यों न मानिए कि यह मरु नहीं है, सम्पूर्ण जो है, वह जीवन का उद्यान है?”

रेखा थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से उसे देखती रही। फिर सहसा खिलकर बोली, “इसीलिए तो मैं कहती हूँ, डाक्टर भुवन, मुझे आप से ईर्ष्या है। मैं एक-एक ओएसिस से ही इतनी अभिभूत हूँ कि दो जोड़ नहीं सकती, और जोड़ना चाहती भी नहीं। कहिए कि इतनी पंगु हूँ कि अगर ओएसिस है तो मरु है ही ऐसा मानना ज़रूरी समझती हूँ-जबकि आप बिना मरु के ही, ओएसिस का अस्तित्व मानते हैं। आप भाग्यवान् हैं।”

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