लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा, “आप काफी सफ़र करती हैं?”

“हाँ, अधिक सफ़र ही करती हूँ। इधर के बहुत कम वेटिंगरूम हैं जो मेरे अपरिचित होंगे। जब मुसाफ़िर नहीं होती तब मेहमान होती हूँ और दोनों में कौन अधिक उखड़ा है यह कभी तय नहीं कर पायी।”

“लेकिन उखड़ापन तो भावना की बात है, रेखा जी! मानने से होता है। व्यक्ति की जड़ें घरों में नहीं होती-समाज-जीवन में होती हैं - नहीं? और यायावरों का भी अपना समाज होता है।”

“तो समझ लीजिए कि मैं ज्ञान के तरु की तरह हूँ-ऊर्ध्व-मूल-मेरी जड़ें आकाश में खोयी फिरती हैं! लेकिन यह न समझिए कि मैं शिकायत कर रही हूँ”

गाड़ी चल दी थी। अगले स्टेशन पर भुवन ने फिर कहा था, “आप जैसा व्यक्ति भटकता है तो यही मानना चाहिए कि स्वेच्छा से, पसन्द से भटकता है - लाचारी तो समझ में नहीं आती। और स्वेच्छा से भटकना तो भीतरी शक्ति का द्योतक है।”

रेखा हँस पड़ी। “भटकने से ही शक्ति आती है, डाक्टर भुवन! क्योंकि जब मिट्टी से बाँधनेवाली जड़ें नहीं रहतीं, तब हवा पर उड़ते हुए जीने के लिए कहीं-न-कहीं से और साधन जुटाने पड़ते हैं। स्वेच्छा से भटकना? हाँ, इस अर्थ में ज़रूर स्वेच्छा है कि पड़ा-पड़ा पिस क्यों नहीं जाता, अँधेरे गर्त में धँस क्यों नहीं जाता, हाथ-पैर क्यों पटकता है?”

“मैं आपको क्लेश पहुँचाना नहीं चाहता था, रेखा जी - मेरा मतलब था - व्यक्तित्व जड़ें तो फेंकने लगता है बिल्कुल बचपन से और-और...” वह कुछ झिझका, “आप का भटकना”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book