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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


शिल्प के बारे में मेरा कुछ न कहना ठीक है, पर नाम के बारे में एक बात कह दूँ। इस नाम की मेरी एक कविता भी है। पर दोनों में विशेष सम्बन्ध नहीं है। उपन्यास लिखना आरम्भ करने से पहले, जब मैं उसे लिख डालने के लिए कहीं जा छिपने की बात सोच रहा था तब दो-एक मित्रों ने पूछा था कि नाम क्या होगा। मैंने तब तक निश्चय नहीं किया था। उन्हीं से पूछा-आप ही सुझाइए। कविता के कारण ही एक मित्र ने यह सुझाया; मैंने कहा, अच्छा, यही सही। फिर मेरे लिखना आरम्भ करने से पहले ही नाम का विज्ञापन भी हो गया। यों नाम का निर्वाह उपन्यास में हो गया है, ऐसा मेरा विश्वास है।

'नदी के द्वीप' मैंने किस के लिए लिखा है? अगर कहूँ कि सबसे पहले अपने लिए, तो यह न समझा जाये कि यह पाठक की अवज्ञा करना है। कदापि नहीं। बल्कि मैं मानता हूँ कि जो अपने लिए नहीं लिखा गया, वह दूसरे के सामने उपस्थित करने लायक ही नहीं है। यहाँ 'अपने लिए' की शायद कुछ व्याख्या अपेक्षित है। 'अपने लिए', अर्थात् अपने को यह बात सप्रमाण दिखाने के लिए कि मेरी आस्था, मेरी निष्ठा, मेरे संवेदनाजाल की सम्पूर्णता और सच्चाई, मेरी इंटिग्रिटी उसमें अभिव्यक्त हुई है। जब तक अपने सामने इसका जवाब स्पष्ट न हो तब तक दूसरे के सामने किसी लेखक को जाना नहीं चाहिए; उससे भूल हो यह दूसरी बात है।

फिर, अपने बाद, संवेदनशील, विचारवान्, प्रौढ़ अनुभूति के पाठक के लिए। स्पष्ट है कि ऐसा कहना, यह कहना नहीं कि जन-जनार्दन के लिए। साहित्य पाठक में कुछ तैयारी, अनुकूलता और परिपक्वता माँगता ही है। पुराने आचार्य तो इसे मानते ही आये, आज-कल भी यह मत नितान्त अमान्य तो नहीं है। जन की दुहाई देने वाले भी प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से मानते हैं कि पाठक की संवेदनाओं की व्यापकता और परिपक्वता का कुछ महत्त्व होता है। तो-क्या 'नदी के द्वीप' मैंने आपके लिए लिखी है? यदि आप यहाँ तक मेरी बात ध्यान देकर पढ़ते रहे हैं तो कहूँगा कि हाँ, आपके लिए भी, फिर आप चाहे जो हों। और यदि इससे पहले ही आप ऊब चुके हैं, या दूसरा कोई मत बना चुके हैं, तो फिर मेरी हाँ भी आप तक कैसे पहुँचेगी?

और अगर आज आप में वह परिपक्वता नहीं है तो? तो आप के शुभेच्छु के नाते मैं मनाता हूँ कि कल वह हो!

- अज्ञेय

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