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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने भी हँस कर कहा, “और कनफ़ेशर मैं होऊँ - मुझे विश्वास है कि मेरा काम बहुत हल्का रहे। आपने ऐसे बहुत कर्म किये होंगे जिनका आत्मा पर बोझ हो, ऐसा नहीं लगता।”

रेखा जोर से हँस दी। अंग्रेजी में उसने एक पँक्ति कही, जिसका अर्थ था “कितना छल-रूपी होता है पापी!” फिर सहसा स्वर बदल कर गम्भीर होकर उसने पूछा, “अच्छा सच बताइए, मैंने आपके इलाहाबाद जाने में जो एक दिन देर कर दी, उसके लिए आप नाराज तो नहीं हैं न?”

अब भुवन हँसा। “वह बात अभी तक आपको याद ही है। मुझे कहीं पहुँचना नहीं था, और एक दिन जो अधिक रह गया वह और भी अच्छा बीता - नाराजी का प्रश्न ही कैसे उठता है? कृतज्ञ।”

“नहीं, मुझे बहुत डर लगा रहता है। जो रास्तेवाले हैं उन्हें रास्ते में एक इंच भी इधर-उधर नहीं ले जाना चाहिए - मेरी बात तो दूसरी है, मेरे आगे रास्ता ही नहीं है।”

भुवन ने कहा, “स्पष्ट क्यों नहीं कहतीं? आप समर्थ हैं, रास्ता बनाती चलती हैं हम दूसरों की बनायी हुई लीकें पीटते हैं।”

रेखा ने जोर देकर कहा, “नहीं, यह मेरा आशय बिल्कुल नहीं था।”

भुवन को रेखा की शाम को कही हुई बात याद आ गयी-“अकेले हैं, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।” उसने चाहा, अभी पूछ ले कि रेखा का क्या अभिप्राय था। पर वह बात उसे नहीं, चन्द्रमाधव को कही गयी थी, उसे सुननी भी नहीं चाहिए थी। उसने पूछा, “तब कुछ स्पष्ट करके कहिए न?”

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