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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्र फिर नहीं बोला। रेखा ने उसके कन्धे पर हल्का हाथ रख कर कहा, “अगर मैं डिस्टर्ब कर रही हूँ तो चली जाऊँ? सवेरे फिर आ जाऊँगी-”

चन्द्र ने बिना हिले कहा, “आपको मिल गयी, फुरसत इधर आने की? अभी शाम को आने की क्या जल्दी थी - कल भी आ सकती थी।”

रेखा को धक्का लगा। पर साथ ही तसल्ली भी हुई, क्योंकि बात उसकी समझ में आ गयी।

“चन्द्र, मैं रानी साहिबा और बच्चों के साथ आयी हूँ, उन्होंने छोड़ा नहीं। अभी थोड़ी फुरसत मिली है-वे सब किसी पार्टी में गये हैं।”

“आप को नहीं ले गये? आप भी जातीं।”

“चन्द्र, मैं सचमुच पहले आ सकती तो आती - परसों से आयी हुई हूँ।”

“परसों से? मैंने तो कल - नहीं, मैं कौन होता हूँ, मेरी ओर से तो आप अभी आयी हैं।”

रेखा ने मुस्कराहट दबा कर पूछा, “तुमने कब जाना-देखा था?”

“और नहीं तो। बच्चों को लिए बनारसी बाग़ के फाटक पर मूँगफली खरीद रही थीं-वहाँ से यह स्थान कुछ भी दूर नहीं है।”

“अच्छा, आज सुबह! तुमने देखा था तो तुम्हीं आ जाते।”

चन्द्र ने फिर तुनुक कर कहा, “जहाँ ज़रूरत न हो, वहाँ जा घुसने की आदत मेरी नहीं है।”

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