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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'ब्याह में जा रही हो। वहाँ भी यही चंचलता रही तो कोई तुम पर मर न मिटे।' 'परंतु उसके मर-मिटने से पहले ही मैं उसे सूचित कर दूँगी।'

'क्या?'

'अभी मेरा पासपोर्ट नहीं बना है, मेरी बड़ी बहन अभी अविवाहित है।' बेला की इस बात पर वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई और बोली-’तुम्हारे इन्हीं हाव-भाव से तो मुझे डर लगता है।'

'और मैं भी तुमसे डरती हूँ।'

'क्यों?'

'कहीं जीवन-पथ पर ऐसे ही बैठी सोचती रहीं तो मैं कहीं आगे न निकल जाऊँ।'

'घबराओ नहीं, दौड़ने वाले प्राय: गिरा करते हैं।'

'और मंद चाल वाले?'

'आगे निकल जाते हैं।'

'तुम ठीक कहती हो दीदी! मैं चाहे दौडूँ, चाहे कूदूँ, प्रथम ब्याह तुम्हारा ही होगा।' दोनों की हँसी से कमरा गूँज उठा। संध्या विस्मित थी कि बेला पर यह ब्याह का भूत क्यों सवार है। कदाचित इसलिए कि उसकी सखी का व्याह है। दूसरे दिन प्रातःकाल विवश होकर बेला को पूना मेल पकड़नी पड़ी। मालकिन और संध्या उसे छोड़ने स्टेशन पर गईं। निशा भी संध्या के संग थी।

जब गाड़ी ने प्लेटफॉर्म छोड़ा, मम्मी और दीदी रुमाल हिला कर बेला को विदा कर रही थीं। उसकी आँखों में आनंद का चित्र घूम रहा था जो इसी सांझ इसी प्लेटफार्म पर किसी को चलती हुई गाड़ी में से देखने को व्याकुल होगा। परंतु वह बेचारा यह न जान पाएगा कि उसकी आँख जिसकी खोज में है, वह उससे पहले ही यात्रा आरंभ कर चुकी है।

ज्यों-ज्यों गाड़ी की गति तीव्र होती गई त्यों-त्यों बेला का मानसिक असमंजस भी बढ़ता गया। उसके मस्तिष्क में यह विचार रह-रहकर आता - क्या ही अच्छा होता यदि वे दोनों एक साथ ही यात्रा करते! आनंद ने उसके जीवन स्रोत में एक हलचल उत्पन्न कर दी थी।

जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर पहुँची, बेला को एक युक्ति सूझी। उसने कुली को पुकारा और सामान गाड़ी से नीचे उतार लिया।

गाड़ी चली गई और उसे अपनी भावना डूबती दिखने लगी। यदि मन किसी से मिलने को व्याकुल हो तो यह विवशता कैसी? यह विचार आने पर उसने कुली को सामान उठाने का संकेत किया और वेटिंग रूम की ओर बढ़ी। 'देखिए! पूना एक्सप्रेस कब मिलेगी?' उसने प्लेटफॉर्म पर घूमते एक टी. टी. से पूछा।

'सांझ को पाँच बजे। टीटी ने आश्चर्य से उस आधुनिक तितली को उत्तर दिया जो अभी ही पूना जाने वाली गाड़ी से उतरी थी।

'प्रतीक्षा में भी आनंद है।' आनंद के मुँह से निकला हुआ यह वाक्य ही बेला को प्रतीक्षा की घड़ियाँ बिताने में सहायता दे रहा था। रह-रहकर उसकी दृष्टि ने प्लेटफॉर्म पर लगी घड़ी की सुइयों को देखा जो कदाचित आज उसकी व्याकुलता को समझ मंद गति से चल रही थीं।

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