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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

आनंद बंबई की एक प्रसिद्ध मोटर कंपनी का सेल्स मैनेजर था और मोटर की खरीद के विषय में ही उसका रायसाहब के यहाँ आना-जाना आरंभ हुआ जो अब इस घनिष्ठता में परिवर्तित हो गया था। यूं तो वह रायसाहब के एक निकटतम मित्र का भांजा था, किंतु अधिक जान-पहचान कभी-कभार के मिलने से बढ़ी थी। इसी संबंध में रायसाहब कुछ और भी सोच बैठे थे और वह था आनंद और संध्या का विवाह।

यह बात आनंद और संध्या से भी न छिपी थी। वे रायसाहब की सहमति को जान चुके थे। संध्या से हर भेंट आनंद को लक्ष्य के निकट ला रही थी। चाय के पश्चात् सब अपनी धुन में खोए थे। आनंद अवसर पाकर चुपके से कार की ओर बढ़ा जहाँ संध्या बड़े ध्यान से उसे देख रही थी।

आनंद समीप पहुँचकर बोला-

'क्यों अच्छी लगी?'

'अच्छी! बहुत अच्छी-और फिर हल्का भूरा रंग तो मेरा प्रिय रंग है।'

'तभी तो लाया हूँ यह रंग, सादा-सा, तुम्हें भी तो सादापन अत्यंत प्रिय है।' 'है तो - चमकीले-भड़कीले रंग तो मुझे भी नहीं भाते।'

'परंतु कभी-कभी इनकी चमक आकर्षित भी कर लेती है-महोदय!' संध्या ने कुछ ऐसे ढंग से उत्तर दिया कि आनंद हँस पड़ा और बात बदलते हुए बोला-

'अच्छा छोड़ो इन बातों को, एक बात मानोगी?'

'क्या?' संध्या ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

'चलो, नई कार में घूमने चलें।'

'पापा से जाकर पूछ आऊँ!?

'कैसी विचित्र बातें करती हो, यह भी भला कोई पूछने की बात है।' 'तो यूँ ही चली चलूँ क्या?'

'नहीं तो क्या - निशा को तो घर तक छोड़ने तुम्हें जाना ही होगा।'

'बहाना-बनाकर चोरों की भांति चलें।'

'तो न सही-रहने दो।' सामने से आती निशा को देखकर आनंद ने मुँह बनाते हुए कहा और भीतर की ओर चला गया।

रायसाहब ने उसे देखकर पूछा-

'क्यों. संध्या को कैसी जंची?'

'मेरे सामने तो वह अच्छी ही कहेगी। और हाँ रायसाहब ड्राईवर का क्या करना होगा?'

'गाड़ी ले दी है तो इसको चलाने वाला भी तुम्हें ही देना पड़ेगा।'

'तो गाड़ी उस समय तक।'

'नहीं-नहीं-उसे तो ले लो। अभी रजिस्ट्रेशन इत्यादि में भी तो दिन लग जायेंगे।'

'यदि ड्राईवर शीघ्र न मिला तो-।'

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